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परिच्छेद]
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आदर्शवाला।


के ज़रिये से मैं नव्वाब के पास जा रही हूं, इसलिये मैं चाहती हूं कि इस वक्त तुमलोगों में से जितने लोग यहां पर मौजूद हैं, मैं सभो का नाम लिख लूं, ताकि वक्त पड़ने पर अगर तुमलोगों की कुछ भलाई मुझसे हो सकेगी तो उससे कभी न चूकूंगी और बराबर तुमलोगो का ख़याल रक्खूंगी।"

यह एक ऐसी बात थी और इसे लवंगलता ने इस सफ़ाई के साथ कहा था कि वहां पर उस गरोह के जितने लोग थे, सबके सब मारे खुशी के उछल पड़े और झुक झुक कर लवंगलता को सलाम करने और दुवाएं देने लगे। इसके बाद वह शैतान योला, जिससे पहिले लवंगलता की बात चीत होचुकी थी,—

हुजूर! गुलाम का नाम नज़ीरखा है। यही फिदवी बुढ़िया का स्वांग बनकर हुज़र की खिदमत में उस दिन हाज़िर हुआ था।

लवंग॰,—"ऐसा! मगर बड़े अफ़सोस की बात है कि तुमने उस रोज मुझपर अपना राज़ क्यों न जाहिर किया और उस ख़त को मुझे किसलिये न दिया, जिसे तुमको मुझे देने ही के वास्ते नव्वाब साहब ने दिया था? खैरियत हुई कि वह ख़त, जिसे तुम मेरे महल के अन्दर गिरा गए थे, मुझे ही मिल गया और उस पर किसी गैर शख्स की नज़र न पड़ी।"

पाठक, अव तो नज़ीर ख़ां को भली भांति पहिचान गए होंगे! पांचवे परिच्छेद में हम इसका हाल लिख आए हैं। आखिर, लवंगलता की बातें सुनकर वह सिर खुजलाते खुजलाते कहने लगा,—

हुजूर मेरी गलती को मुआफ करेंगी। बेशक यह मेरा सरा. सर कुसूर था कि मैंने उसी वक्त आपको वह ख़त क्यों न दिया और अपने तई क्यों न ज़ाहिर कर दिया। मगर हज़त! उस वक्त मुझपर हुज़र का रोब इस कदर ग़ालिब होरहा था कि मेरी सारी अकल खोगई थी और उसपर आपकी उस आफ़त की परकाला लौंडी वह गज़ब ढाह रही थी कि मुझसे उस वक्त कुछ भी करते धरते न बना और किसी तरह अपनी जान छुड़ाकर मैं वहाँले विकल भागा!"

लवंग॰,—"बेशक, तुमने उस बक्त बड़ी रानी की बरन तुम्हे यों चोरों की तरह मुझे न लाना पता और में खुद तुम्हारे हमराह होती। खैर, जो हुआ सो हुआ!"