नाक के बीरी के बदरा! तुझे टवा दूंगी।
पनवती का बहर आया, जाता जाया,
वैसा गछनी बार कलमुहा लनी भला माया,
नाक के बीरी के बदरा! तुझे तवा दूंगी।"
यद तुम ओर मटक मक कर उससे पाले को अदा देख कर लवंगलता मदनमोहन हसते हसते लोट पोट होगए! फिर कुन्दन ने हँसकर कहा,—देखिए, बीवी रानी! भैर ऐना अच्छा गाया, पर आपके बंदरे ने मुझे कुछ इनाम न दिया!"
इम पर दोनों हंसने लगे!
निदान थोड़ी देर तक आपन में ये ही चहल की बातें होती रहीं, फिर लवंगलता अन्त पुर में चली गई और मदनमोहन अपने चकनाचूर चित्त को किसी किसी तरह बठोर बटार कर अपने डेरे पर चले आए।
सातवां परिच्छेद.
तस्वीरवाली।
यदि वाञ्छमि सौख्यातं.
भज वामोरु दशानन मुदा।"
(रावणवधनाटकम्)
पदर पीछे अपनी चित्रशाला में बैठी हुई कुमारी लवंगलता चित्राधार (आलबम्) को खोलकर अपना जी हला रही थी। उस समय उनके पास कोई नहीं था, इसलिये उसे अपनी मानसिक वेदना के मिटाने या उसमें तडपने का अच्छा अवपर हाथ लगा था। वह कभी उलट पलट कर चित्रो को देखती, कभी ठडी ठही उमासे लेती कभी हाथ मलमल कर इधर उधर देखने लगती और कभी आपही आप न जाने क्या का धकने लगती थी। इतने ही में उसकी प्यारी सखी कुन्दन हसती हुई वहीं पहुंच गई, पर मारे हसी के उसका ऐसा