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श्रीः
प्रथम संस्करण का निवेदन।

इस उपन्यास (लवङ्गलता) के पढ़ने के पहिले, उपन्यास-प्रिय पाठकों को इस (लवङ्गलता) से पूरा सम्बन्ध रखनेवाले "हृदयहारिणी" उपन्यास को अवश्य पढ़लेना चाहिए, क्योंकि बिना ऐसा किए, इस (लवङ्गलता) का पूरा पूरा आनन्द न मिलेगा।

"हृदयहारिणी" उपन्यास, जो कि आज से तेरह वर्ष पूर्व हिन्दी के एकमात्र दैनिक पत्र "हिन्दोस्थान" (सन् १८६० ई॰) में छपा था, जब कि उक्त पत्र की सम्पादकता हमारे परममित्र पंडितवर प्रतापनारायणनिश्र करते थे। उसकी भूमिका पढ़ने से पाठकों को यह बात भलीभांति विदित हो जायगी कि यह उपन्यास कितने वर्ष पूर्व का लिखा हुआ है।

"हदयहारिणी" के समाप्त होने पर यह "लवङ्गलता" उपन्यास भी हिन्दोस्थान" मे छपनेवाला था, पर स्वाधीनचेता प्यारे प्रतापमिश्र ने कई महीने संपादकता करके उसे छोड़ दिया, अतएव हमने भी "लवङ्गलता" को बस्ते ही मे बंधी पड़ी रहने दिया था, किन्तु आज यह "उपन्यास" मासिक-पुस्तक द्वारा प्रकाशित की गई! आशा है कि जैसे साहित्य-मर्मज्ञ उपन्यास-प्रेमियो ने "आदर्शरमणी" के उदार चरित्र पर भक्ति प्रगट की है, वैसे ही वे इस "आदर्श-वाला" को भी पूज्यदृष्टि से अवलोकन करेंगे। यद्यपि "न वेत्ति यो यस्य गुणं प्रकर्ष स तं सदा निन्दति नात्र चित्र के अनुसार “हृदयहारिणी” के "आदर्शचरित्र" पर कोई कोई परोत्कर्षासहिष्णु, अनुदारमना, सजन मुहं आए है, जिन्हें अपनी विचित्रस्त्रीचरित्र के आगे कुछ अच्छा ही नही लगता; पर उनकी हम कुछ भी पर्वाह नहीं करते, क्यों कि जो पुराण और साहित्य के अनुशीलन से कोसोदूर है, जिन्हे उषा, दमयन्ती,विद्यावती, तपती, प्रभागती, शकुन्तला आदि के 'कोर्टशिप' का ज़रा भी ज्ञान नहीं है, उनके कथन पर हम कदापि ध्यान नहीं देते, और जो कुछ लिखते है, वह अपने अटल और स्वतंत्र विचार के अनुसार ही लिखते है; क्यों कि हम सर्वथा पुरानी लकीर के फ़कीर नहीं बने हुए है।

काशी

निवेदक—

 
ता॰ १ जून, सन् १६०४०

श्रीकिशोरीलालगोस्वामी