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कह दिया था, जिसका यह नतीजा हुआ कि अमीचद को कौन्सिल वालो ने एक पैसा भी न दिया और क्लाइब ने नकली इकरारनामा बनाकर अपना काम निकाल लिया। सच है, अमीचंद ने लालच के फेर में पड़, अपने तई आप हानि पहुँचाई और कम्पनीवालों से उन्हें एक कौड़ी भी न मिली।

यही हाल एक दिन नरेन्द्र ने कुसुम की मां से[१] कहा था।

फिर नरेन्द्र ने गुमनाम चीठी मे सैय्यद अहमद के लिखे कई ऐसे पत्र सिराजुद्दौला के पास भेज दिए, जिनसे सैय्यद अहमद की बग़ावत साफ़ ज़ाहिर होती थी, वास्तव मे वे चिट्ठियां ऐसी थी कि जिन्होने सैय्यद अहमद को बागी साबित कर ही दिया!

हाय. इतना सब हुआ, पर उस बेचारे सैय्यद अहमद को इस बात का पूरा पूरा भेद न मालूम हुआ कि,—' मैं क्योकर इस बला मे फंसा!'

हां, कभी कभी उसे अपनी चिट्टियों के सदूक का ख़याल अवश्य हो आता था और तब वह उसी सदूक को ही अपनी बर्बादी की बुनियाद समझता था।

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पांचवां परिच्छेद.
चित्र।

"अनाघ्रात पुष्प किसलयमलूनं कररहैः,
अनामुक्त रत्नं मधु नवमनास्वादितरसम्॥
अखण्ड पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघ,
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति भुवि॥"

(अभिज्ञान-शाकुन्तले)

रात के दस बज गए है। हीराझील नामक प्रासाद के एक बहुत ही सुहावने कमरे मे नव्वाब सिराजुद्दौला तकिए के सहारे से लेटा हुआ मोमी शमादान की रौशनी मे एक तस्वीर देख रहा है। उस समय वहां


  1. हृदयरिणी का सातवां परिच्छेद देखो। [४] सुं॰