चौथा परिच्छेद,
बुद्धिबल।
बुद्धिर्यस्य बल तस्य निर्बुद्धस्तु कुतो बलम्।
पश्य सिहो मदोन्मत्तः शशकेन विनाशितः॥
(मित्रलाभः)
तीसरे परिच्छेद में कही हुई घटना को भली भाँति सुलझा देने की इच्छा से इस परिच्छेद में हम कुछ लिखा चाहते है।
इस (चौथे) परिच्छेद के पहिले परिच्छेदों के पढ़ने से पाठकों को यह मालूम होगया होगा कि सैय्यद अहमद ने किस कलुषित बासना के चरितार्थ करने की इच्छा से अमीचद को उभाडकर नरेन्द्र सिंह के फंसाने का जाल बिछाया था। जब कि अमीचद ने नव्वाब सिराजुद्दौला से नरेन्द्रसिंह की बग़ावत का हाल कहा और उसने अपने सामने फ़तहखां को बुलाकर नरेन्द्र की गिरफ्तारी का हुक्म दिया, इसके पहिले ही मीरजाफ़रखां ने जल्दी से एक पुर्जा लिखकर नरेन्द्रसिंह को होशियार कर दिया था, यह सब तो पाठक जानते ही है।
किन्तु मीरजाफ़रखां ने उस समय, जब कि अमीचंद सिराजुद्दौला से विदा होकर जाना चाहते थे, उनसे अकेले में बात चीत करके उनके पेठ मे से यह बात बड़ी आसानी से निकाल ली थी कि,—'आज नरेन्द्र के विरुद्ध जो कुछ अमीचंद ने कहा था, सो सब सैय्यद अहमद के भडकाने से ही कहा था। यह हाल जान कर मीरजाफ़र ने अमीचद को बिदा किया और फिर वह इस फिक्र में लगा कि.—'क्योंकर सैय्यद अहमद को फंसावे,' क्योकि उसे इस बात ने दहला दिया था कि,–'आज जैसे सैय्यद अहमद ने नरेन्द्रसिंह का राज नव्वाब के आगे खुलवा दिया है, वैसे ही कल हमारा या हमारे गरोह के किसी ओर शख्स का हाल भी वह नवाब तलक पहुंचाकर वडा भारी फ़साद वर्षा कर सकता है! ऐसी हालत मे इस खंखार मूज़ी को जहां तक जल्द मुमकिन हो,