यह पुर्जा बीच मार्ग मे नरेन्द्र ने पाया, जब वे कुसुम के यहां से लौटे आते थे और उनके पास एक छोटी सी कटार के अलावे और कुछ न था; किन्तु चट वे अपने एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां पर उनका घोडा, भेस बदलने के भांति भांति के सामान और तरह तरह के हथियार रहते थे। राजनीति में कुशल होने के कारण इस ठिकाने का हाल उन्होने मीरजाफर या सैय्यद अहमद आदि किसी से भी नहीं कहा था, किन्तु कुसुम का हाल उन्होने किस दुर्बुद्धि के पाले पडकर सैय्यद अहमद से कह डाला, इसे कौन जाने! अथवा राजनैतिक मामले के आगे कुसुम की बात को उन्होंने बिल्कुल मामूली समझी होगी!!! अस्तु।
निदान, वे भेस बदल, हर्वे हथियारो से लैस हो, घोड़े पर सवार होकर अपने गुप्त अड्डे से चले और वहां के रक्षक (नौकर) को ताकीद कर दी कि,-'ख़बर्दार! इस अड्डे का हाल कोई जानने न पावे। 'यदि वे चाहते तो उस अड्ड या अपने गुप्त स्थान पर छिप लुककर महीनो रह सकते थे, और किसीको वहां की कुछ ख़बर भी नहीं हो सकती थी, पर उन्होने राजनीति-कुशल मीरजाफ़र की बात को टाल देना उचित न समझा और उसी समय मुर्शिदाबाद से चल देने को ठहराई। सो, जब वे अपने गुप्त स्थान से निकल, शीघ्रता से घोड़ा दौड़ाते हुए चले जा रहे थे, तब बीच राह में सैय्यद अहमद मिला, जो उन्हीकी खोज मे घूम रहा था, और उस ने हाथ का इशारा कर के घोड़ा रोकने के लिये कहा। नरेन्द्र ने अपने मित्र को ऐसे समय मे देख घोड़ा रोका, पर दूर से नव्वाब के सवारों को अपने ऊपर धावा करते देख, उन्होंने घोड़े की लगाम बैंची और केवल इतना ही कहकर कि,-'मित्र! कुसुम का ध्यान रखना, उसकी टोपी बिकवाने वाली चाल से कभी गाफ़िल न होना,-'घोड़े को हवा कर दिया। फिर किसकी मजाल थी कि उन्हें पाता!
सैय्यद अहमद की यही इच्छा थी कि,–'वह नरेन्द्रसिंह को तबतक बातो मे उलझाए रहे, जब तक कि नव्वाब की फ़ौज न आजाय,' पर उसका सोचना कुछ काम न आया और नरेन्द्र नव्वाब की सेना को अगूठा दिखलाकर साफ़ निकल गए। यदि उन्हें मीरजाफ़र का पुर्जा न मिला होता, तब तो बीना सैय्यद अहमद के