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[दूसरा
लवङ्गलता।



बाद मे रहते थे। वहा रहने पर यद्यपि नरेन्द्र ने दर्बार के प्रायः सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियो को अपनी अर्थात अग्रेजो की ओर मिला लिया था और सभोसे ही राह रस्म पैदा करली थी, किन्तु उन सभो मे सैय्यद अहमद नामक एक मुसलमान युवक के साथ उनकी गहरी मित्रता होगई थी, जो कि सिराजुद्दौला का बहनोई और उसका प्रधान मुसाहब भी था।

यदि नरेन्द्रसिह ने कभी भूलकर भी गुसाई तुलसीदासजी की इस चौपाई को सुना होता कि,–'मन मलीन तन सुंदर कैसे? विष-रस-भरा कनक घट जैसे,-'अथवा चाणक्य के इस बचन पर भी कभी ध्यान दिया होता कि,-' दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्वि-श्वासकारणम्।' तो कदाचित वे सैय्यद अहमद के फेर मे न पड़ते और उसपर अपने उन गुप्त भेदो को कभी प्रगट न करते, जिनके प्रगट करने के कारण ही सैयद अहमद उनकी जान का दुश्मन बन गया था और उस दुष्ट ने अपने भरसक नरेन्द्र की जान ही लेडाली थी और क्या! किन्तु यदि जगदीश्वर की प्रेरणा से उस समय मीरजाफरखां को युक्ति न सूझती और वे नरेन्द्र को तुरत ख़बरन देदेते तो क्या आश्चर्य था कि उसी दिन नरेन्द्र की समाप्ति होजाती और सैयद अहमद के मनचीते होजाते; किन्तु ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था, इस लिये वह ऐसा होने ही क्यो देता!

तो ऐसी कौन सी बात थी कि जिसके कारण सैयद अहमद ने अपने मित्र नरेन्द्रसिह पर ऐसा भयानक वार किया? सुनिए, कहते हैं,-

कृष्णनगर की राजकुमारी, जिसका नाम कुसुमकुमारीथा, बड़ी ही शोचनीय दशा को प्राप्त हो, मुर्शिदाबाद मे अपनी मां के साथ अपने खान्दान की बात छिपाकर दीन-हीन व्यक्ति की भांति अपना दिन काटती थी। उसकी गरीबी और दीन दशा के कारण न कोई उसकी सुध लेता था,न टोह, इसलिये वह बेचारी मुर्शिदाबाद मे रहकर भी दुःख से अपना दिन बिताती थी। दैव-सयोग से नरेन्द्रसिह की आंखों मे पडते ही कुसुम उसमे गड़ गई थी और उन्होने उसका सच्चा हाल सुन, उसे अपने हृदय मे स्थान दिया था; और उसकी भरपूर सहायता करने की प्रतिज्ञा की थी, किन्तु जब कुसुम की मां ने किसी गैर शख्स की सहायता लेनी स्वीकार न