पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/९५

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नज़रीन येही सवालात मैंने उससे किए थे, लेकिन उसने शायद मेरी एक बात भी न सुनी होगी, क्यों कि वह निहायत तेज़ीके साथ सही और बेतरह घबराकर मेरे हाथ से अपनी ओढ़नी के दामन को छुड़ाती हुई भाग गई। उस के जाने पर फिर मैं पहिले की तरह उलझनों में उलझ गया और सोचने लगा कि यह क्या माजरा है। यह क्या माज़रा है कि वेगम भी मुझे आजाद करना चाहती हैं और लोंडीभी,लौंडो जिस तरहासे आज़ाद करना चाहती है वहतो मैं उसकी जवानी सुन चुका हूं, मगर वेगम को क्या इरादा है, इसे भी एक मर्तबा ज़बर सुन लेना चाहिये! शायद अगर वेगम का तरीका लौंडी से अच्छा है। तो मैं ऐसी जरदार वेगम को छोड़ कर एक ना चीज़ लौंडी के फंदे में क्यों फ़सं! क्योंकि गो. यह लौंडी खूबसूरत है और मुझसे मुहब्बत भी रखती है, लेकिन वेगम की खुबसूरती या दोलन को वह नहीं पासकती। मैं लौंडो से सिर्फ़ आज़ादी पाने की लालच से मुहब्बत कर रहा हूं, अगर वेगस की आजादी का तरीका उमदः हो तो मैं उसी को कबूल करूगा और लौंडी को भी किसी ढबसे नाराज़ न करके अपने कब्जे में करूंगा, क्योंकि इसे नाराज करने में मेरी बिहारी नहीं है, तो मैं जबतक वेगम का इरादा जान नवं, इस लौंडी के साथ दर्मिज़ न भागा। मैं पलंग पर पड़ कर तबीयत नासाज़ होने का नखरा करता हूं और आज शप को खाना न खाऊंगा। क्योंकि बेगम के साथ खूब भर पेट खाना खा चुका हूं। लाओ, सच तक बची हुई मेवा और शराब को भी खा पी डाल। इसी किस्म की बाते दिलही दिल में सोचकर मैंने मेवे खाकर शराब पी डाली और फिर सोचने लगा लेकिन अगर वेगम मुझे इस शर्त पर आज़ाद करे कि जब वह चाहे मझे किसी छिपे रास्ते से महल के अन्दर सुलावे तो इस तरीके को मंज़र न करूगा, क्योंकि इस में एक दिन मेरा सी वही नतीजा होगा, जैसा कि मेरे हाथ से नजीर का हुवा है ! हां,