पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८८

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लखनऊ की कब्र आखिर, घहभो कालीनके फर्श परही मेरे सामने बैठगई और बोली "अगर दिल चाहे तो शतरञ्ज लाऊं !" मैंने कहा,-"क्या हर्ज है।" इसपर उसने उठकर पक आलमारी खोलो और उसमें रक्खी हुई एक घड़ीकी सुई धुमादी । फिर आलमारी बंदकर औरआकर बैठगई। मैंने पूछो, “घडी की सूई हिलाने से क्या मतलब निकलेगा ?" उसनेकहा,--इसका हाल मैं तुम्हें बतलाती हूं, लेकिन तुम कभी इस सूई के घुमाने का इरादा न करना ।" ससने इतना ही कहा था कि कमरे का दरवाजा खुला और वही लौंडी आपहुंचो । उसे देखतेही परीजमाल ने कहा,--“ मेवे, शराब और शतरज निकाल, । " जो इर्शाद, " कहकर लौंडी ने एक संदली तिपाई पर सोने को तश्तरी में तरह तरह के मेवे, शराब की बिल्लोरी सुराही, जमरद के प्याले और गजक की रकाबी किते से चुनदी और हाथी दांत के बने कुए शतरंज के मुहरे लाकर रख दिए । कुल इन्तज़ाम होजाने पर बेग़म ने उसकी ओर देखकर कहा,और तो सब ठीक है न ?" लौंडी ने कहा,--"जी हां, हुज़र!" वेगम,--"खर तो अब तू जा और मेरो जब ज़रूरत समझियो, धड़ी की सूई हिलाकर इत्तिला दीजियो । " जो हुकम, " कहकर लौंडी फौरन वहां से चली गई और परी जमाल ने शतरंज बिछाकर कहा, लो, मेवे के साथ थोड़ी थोड़ी शराब भी चलती जाय और खेल भी होता रहे। मैने कहा, तो बिस्मिल्लाह कीजिए। यो कहकर मैंने प्याला भरकर उसे दिया, जिसेपाकर उसने प्याला भरकर मुझे दिया ! फिरतो थोड़ी मेवा खानाकर शराब हम दोनों भोले लो और शतरंज शुरू हुई । लेकिन यह खेल इतना घेढब है कि