पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/८७

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  • शालीमहलसरा गरज़ यह कि मैं इन्हीं बातों पर गौराकरता था कि इतनेही में फिर एक खटके की आवाज़ से मेरा ख़याल बंट गया और सर उठाकर देखातो क्या देखा किवही परीजमाल, यानी मलकाचली भारही है !

यह देन कर मैं किताब पटक कर जल्दीसे उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़ सादाचअर्ज करके बोला, बल्लाह, मुझे तो इतनी जल्दी आपके दीदार नसीब होने की उम्मीद न थी!' उसने मुस्कुराकर और 'आदाब' का जवाय देकर मेरा हाथ. थाम्ह लिया और कहा,--« हज़रत ! तुम 'आप आप' के सिलसिले से बाज़ न आओगे ?" मैंने कहा,-" खैर, अब ऐसी खता कभी न करूंगा।" यह वोली,--अच्छी बात है। अच्छा, अझ अपनी दूसरी बात का जवाब सुनो! वेशक, मैंने दिन के वक्त आने को कोई पका वादा नहीं किया था, लेकिन मौका हाथ आगया, इस लिये एक लहजेके लिये आगई । लेकिन यह क्या, (घम कर ) अभी तुमने खाना नहीं खोया !" मैंने कहा,-- क्या खूब ! अभीतो लौडी खाना रखकर रवाना वह,-"खैर, तो पेश्तर खाना खालो।" मैं, लेकिन आज तो मैं अकेला खाना न खाऊंगा। यह सुन कर यह हंस पड़ी और बोली,-~तो बिहतर है, चला मैं खुशी से तुम्हारा साथ दुगी, क्योंकि अभी तक मैंने भी खाना नहीं खाया है।" यह सुन कर मैं निहायत खुश हुआ और उसे खाने की मेज़ के पाल ले गया । हम दोनों आमने सामने कुर्मियों पर बैठ गर और निहायत लजीज़ और उम्दः खाना खाने लगे। ब'च बीच में तफ़री दिल्लगी और चीज़ की बातें भी होती रहीं, लेकिन मैंने ज़ियादहतर वक्त खाने की तारीफ़ ही में बिता दिया। खाना खा चुकने के बाद हम दोनों कालीन परमा वैठे, क्यों कि मलकाने बहुत हुजतको,लेकिन उसके सामने मैं मसनद पर न बैठा।