पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६८

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  • लेखनऊ को कत्र नवां परिच्छेद।

आखिर लौडी को रुखसत करके थोड़ी देर बाद वह परीजमाल मसनद से उठी और मेरे छपरखट की तरफ आने लगी । नाज़रीन ! आपको याद होगा कि नाम न जालने के सबब मैं इस नाज़नी को पेश्तर ' परीजन्माल' ही कह कर पुकारता था। चनांचे जब वह मेरे पलंग के नज़दीक पहुंची, तब मैं तेज़ी से उठ खड़ा हुआ और अब से 'आदावअर्ज कर के पूछा,-४ मिज़ाज-ई-शरीफ़ !" वह मझे इस तरह उठते देखकर शायद कुछ खुश हुई और आदाय का जबाब दे कर कहने लगी,-" हां, भई, यूसुफ़ ! खुदा के फ़जल से मैं खुश और खिायादहतर खशी तो मुझे इस बात से है कि तुम फिर मेरे पास मौजद हो ! अल्लाह, मैं तो तुम्हारे वास्ते बड़े पशोपेश में थी और मैंने तुम्हारी तमाम शहर में बड़ी तलाश कराई थी, लेकिन जब तुम्हारा सूगग कहीं न लगा तो हरचार, मैं हाथ मलकर रहाई । मला, मुझे इसकी क्या खबर थी कि अभी तक तुम महलसरा' के अन्दर ही मौजद हो !!!" मैंने कहा,-- साहब ! मुझ रामजदे की मुसीबतों को हाल कुछ न पूछिए ! नहीं मालूम कि मोन करून भुमो को भूल गई, जो इतने सदमें उठाने परःमो जान तल से जदा नहीं होती!" उसने कहा,-यूसुफ़, अफ़सोस न करा, सत्र करो और ग़ोर तो करो कि वही पेश आएगी, जो कुछ कि पेशानी में है ! " मने कहा,-" खैर, मैं अव पेइतर अ पसे यह अर्ज करता हूं कि हमारत बराहे मिहरवानी वैठ जांय और अगर कोई हर्ज बवाह न हो तो चंद लहजः कुछ बात चीत करें! यह सुन कर एक कुर्सी खेंच कर वह वैठ गई और मुझे जबर्दस्ती पलंग पर बैठा कर कहने लगी,-" दोस्त, यूसुफ ! क्या तुम पहिले के रिश्ते को भूल गए; जो फिर “ ओप--ओप के सिलसिले के।