पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/६३

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  • शहोमद रासस से मैं यह बखूबी जान लूंगा कि दरअसल यह दिलाराम है,या नहीं।

आखिर,येही समचाते मैं देस्तक सोचता रहा और दिलहीदिल मैं मैंने पक्का इरादा करलियाकि अब मैं उसके खातिरखाह काम कर्क गा और ले हर्गिजन चिढाऊंगा। इसके बाद मैंने हाथकी मोमबत्ती,जोअब बहुत कम रह गई थी, बुझाकर एक तरफ फैकदी और एक तिपाई पर बैठकर दोघंट पानी पीया । फिर उठकर कमरे में टहलने लगा और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिये? मतलब यह कि देरतक मैं पागलोंकी तरह कमरे में टहलता रहा फिर आकर छपरसटपर लेट गया । मुझे लेटे थोड़ीही देर हुईथी कि धीरे धीरे, बहुतही धोरे, कमरे का दरवाजा खुन्दा और एक नाज़नी अंदर आई । अन्दर आकर उसने भीतरसे दरवाजेको बन्द करलिया और इधर उधर नज़र दोहाकर वहमेरे जानिब आनेलगीं। उसे अपनी तरफ़ आते देखकर, यह जानने के लिये कि यह यहां आकर पा करती है मैंने अपनी आखें इस दसे बन्द करली कि जिसमें कि वह मुझेसोया हुआ समझे और मैं जरा जरा खुली हुई आंखोसे यह देख सकंकि वह क्या करती है ! गरज, यह मेरे पलङ्ग के पास आई और झुककर मेरे चह है की तरफ देखने लगी उस वक्त मैंने बिल्कुल आखें बंदकरली थी और देर तक उन्हें बंद ही रक्खा था। मुझे उसकी गरमा गरम सांस मालूम हुई, जिससे मैने जाना कि उखका मुह मेरे मुह के बिल्कुल पास मा गया है फिर एक किस्मकी बहुतही हलकी और निहायत मीठी ___ आवाज मेरे कानों में आई, इसके बाद सन्नाटा हो गया, लेकिन्या मैं देस्तक आखें बंद करके चुपचाप खुरोटे भारता रहा। कुछ देरके बाद मैंने बहुत ही धीरेसे जरा सी आंखें खोली और देखा कि यह नाजमी शमादान के करीब बसी हुई कोई कागज देव