पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/५३

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शाहीमहलप्सरा मैं- लेकिन, इसका क्या सुब्नहै कि दर असल वह फ़ाहिश! मौर मझे छोड़कर किली और के साथ रंगरलियां मना रही है ?, वह,--"सुबत तू किस किस्म का बाहता है ? मैं,-"इस तरह का कि जिससे मेरे दिल में फिर कोई शक बाकी न रह जाय और में यह जान लं कि वाकई वह बदकार है। ___वह,--"अगर तेरै खातिरवाह ऐसा ही कोई सबूत दिया जायः तो तू क्या करेगा मैंने कहा.-- तब मैं फिर कभी भूल कर भी उस बदकार को नापाक नाम अपनी ज़बान से न निकालंगा और जहां तक मुझले हो सकेगा, इस्ली हाथ से उसका और ससके चाहनेवाले का सिर काट डालूंगा।" उसने कहा-"खैर तो तू सत्र कर, मैं तुझसे वादा करती हूँ कि तुझे दिलाराम को गैर शख्श के साथ एक पलंग पर साई हुई दिन ला देगी। मैंने जल्दीसे कहा,-"लेकिन, कब ? वह,-"दोही चार रोज़ के अन्दर मैं-“खैर, तो तू अब यहांसे जा और उसी दिन मेरे पास आइयो जिस दिन कि तू मुझे दिलाराम की कैफियत दिखला सके।" उसने कहा,-"बेहतर, मैं जाती हूं और जिस दिन दिलारामको बदकारी के दिखलाने का मौका आपंगा, मैं तुझे आसमानी के साथ भेजगी क्योंकि महलसराके बाहर मैं हगिंज कदम नहीं रखसकली ।। मैंने कहा,-"खैर इप्त पातको मैं मंजूर करता हूं। लेकिन एक बात मैं तुमसे और पूछा चाहता हूं। क्या मिहरवानी करके उसका जवाब दोगी? उसने कहा,-"पूछो, क्या पूछते हो ? अगर कोई पेली याद है,गी, जिसके जबाव देने में मुझे कोई रुकावट न होगीता उसक जधान ज़रूर दूंगी वरना साफ़ इन्कार करूंगी।"