पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

लपन कि का एक धुथला बिग जलरहा था, कि चारपाई के पासही एक चौकी पर पानी की सुराही और एक मिट्टी का प्लाला रक्खा हुआथा और उस वक्त उल कोठरी में कोई भी नथा मैंने हाथ बढ़ाकर सुराही में से प्याले में पानी डाला और कई घंड पीकर अपने दिल को तसल्लीदी मुझे कुछ भूख मालम हुई, लेकिन उस कोठरी में तलाश करने पर खाने के किस्म को कोई भी चीज़ न मिली। गरज़ यह कि सिर्फ पानी ही से भूख और प्यास दानों को तस्कीव दे दिखा कर मैं चारपाई पर लेट गया और सोचने लगा कि मैं कहां? देर तक तरह तरह के खयालों में गोते लगाने के सबब मेरा सिर असने लगा, इसलिये मैं आंखें बन्द करके चुपचाप पड़ा रहा । देर तक मैं इसी आलम में रहा,इसके बाद फिर मैं आंखें खोल और बैठा हा कर इधर उधर देखने लगा। गौर करते करते अब सारी बातेभेरे ध्यान में बखूबी आगई और मैंने समझा कि मैं उसी मनहूस कोठरी में ई, तिसमें लाकर पाजी आसमानी ने मुझो कैद किया हूँ! इस बात के वाइ आते ही मेरी कह कांप उठी और मैंने दिल ही दिल में खुदावंद करोंम से यह इस्तवा की कि वह मुझो जल्द इस कफ़स से रिहा करदे । बात यह है कि मैं इसी किस्म की बातें सोचता रहा इतने ही में उस कोठरी के एक तरफ का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश औरत हाथ में एक प्याला लिए हुए कोठरी के अन्दर आई। पेश्तर तो वह मुझे चारपाई पर बैठा देख कर छकु झिझकी, फिर आगे सहकर उसने सुराही वाली चौकी पर प्याला रख दिया, जिसमें दुध था, और कहा, "आज तुम्हारी तबीयत कैसी है ?" यह सवाल सुन कर मैंने ताज्जुब किया और उससे पूछा,"तुम्हारे इस सवाल के मानी क्या हैं ? ..सने कहा, यही कि तुम निहायत बीमार थे। मैंने कहा, "मुझे इस कोठरी में आप कै रोज़ हुए !x .