पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/४१

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  • शाहोमहलसरा* भासमानी खड़ी हुई है ! उस्ले देखकर वाकई एकमतवः मेरी रूह कांप

ठी, लेकिन फिर खुदाका खयाल करके मैंने अपने दिल को मज़ बत किया और यह आसरा देखने लगा कि देखें, अब यह आफ़त की बुडिया . या रङ्ग लाती है ! याही सोचता हुआ मैं चुपचाप चारपाई पर बैठा रहा, इतनेही में मासमानी ने जङ्गले के बाहर से खखार कर कहा,-"वदनसीब, यूसुफ़ ! तू मुझे पहचानता है ?" इसके ताने को सुनकर मैं दिल ही दिल में जल उठा और बोला"कुछ थोडा थोड़ा। ___उसने कहा,-*और यह गनीमत है कि तू मुझे कुछ न कुछ पहचानता जरूर है, और अगर कुछ थोड़ा थोड़ा मी तू मुझे पहचानता है तो यह बात भी जरूर जानता होगा कि इस मकतू बिलकुल मेरे कवजे में है। " मैंने लापरवाई से उसका जवाब दिया,-"शायर एसाही हो!" वह बोली,-"क्या अभी तक तुझे इस बात पर कुछ शक है ? " मैं,-"मुमकिन है कि शायद कुछ हो !" घह,-"लेकिन अगर ऐसा तू खयाल करना हो तो यह तेरी महज़ हिमाकत है ।... " मैं,-"ऐसा भी हो सकता है।" घह,-"है। क्या सकता है, हुई है ! लेकिन अपनी मौत को सामने देखफर भी तेरी अक्ल पर इस किस्म का परदा पड़ गया है कि तुझे अपना नफा नुकसान कुछ भी सूझ नहीं पड़ता।" मैं,-"लेकिन, कंपख ! बू इस वक नाहक मेरा सिर चाटने क्यों आई है?" वर,.....इसलिये कि तुझ पर यह बात मैं जाहिर कर दकि अब तेरी नान बिल्कुल मेरे कवजे में है और मैं जिस तौर पर चाहूं, अलका फैसला कर सकती हूं।"