पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३४

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___३२ अलमनऊ को कत्र * नकाबपोश,--"नहीं, मैं हर बन्द चाहा कि उस से मैं तखलिये में मिल', लेकिन वह इतने सर: पहरे में रखी गई है कि मेरा गुजर उस के पास तक न होसका । मगर वह मेरी दोस्त है और उसी की जधानी तुम्हारा कुल हाल मुझे मालूम था, यही सबब है कि मैं बगैर उलसे राय लिये तुम्हें यहां से निकालने के इरादे से आई हूं। इल में मैंने दो बिहतरी की बातें सोची हैं। एक तो यह कि तुम अगर इस बक्त यहां से भाग जाओगे तो हमेशे के लिये आज़ाद होकर अपनी जिंदगी खुशी से बितासकोगे; दूसरे यह कि अगर तुम्हें बादशाह यहां न पाएगा तो वह मेरी दोस्त नाजनी भी घेकसूर ला. बित होकर कैद से छूट जायगी।" मैंने कहा,-- लेकिन अभी तुपने यह कहा है कि मेरे यहां पर र 'नेके हालको आसमानी से सुनकर बादशाह ने हम्माम वाले रास्ते को बन्द कर मुझे यहां पर कैद कर रक्खा है! " नकाबपोश,--" हां यही ठीक है, लेकिन अभी तक बादशाह ने अपनी आंखों से ते तुम्हें नहीं न देखा है ! पस, जब तुम शाही महलसरा के अन्दर न पाए जाओगे ते न तुम्हारी जान खतरेमें रहेगी और न मेरी दोस्त नाज़नी ही कसूरवार साबित हो सकेगी। इसके अलावे एक बात और भी है।" मैंने कहा,--" वह क्या ?" नकाबपोश ने कहा, वह यह कि अगर मेरी दोस्त नाज़नी फिर तुमसे मुलाकात किया चाहेगीता वह तुम्हारे मकान पर जाकर तुमसे मिलेगी। या पोशोदा रास्ते से तुम्हीं को महलसरा के अन्दर बुला लेगी। पस, अब तुम्हाग जोगकुछ इरादा हो,वह मुझपर ज़ाहिर करो, ताकि उसी के मुताविक में कार्रवाई करूँ।" मैंने कहा,--“ अपने इरादे के जाहिर करने के पेश्तरमैं एक बात और जाना चाहता हूं।" नकाबपोश,--"वह क्या ?