पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/३०

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  • स्खलनऊ को का चौथा परिच्छेद।

सवेरे उठकर जब मैं हम्माम में जाने के वास्ते उस पुतले के पास पहुंचा, जो कि हम्माम का रास्ता था, तो क्या देखता हूं कि आज वह पुतला भी अपने तीनों साथियों की तरह लुण्ड मुण्ड हो रहा है ! यानी उसके दोनों हाथों की तलवारें गायब हैं और उसका भी हाथ अब अपनी जगह से हिलता नहीं है! यह अजीब कैफिरत देखकर मैं उसके पास पहुंचा और उसके सिर पर वाली कील ऐंठने लगा, लेकिन अब वह पेंच अपनी जगह से जरा न हिली और मेरी सारा मिहनत बेकार गई । यह हाल देख कर मैं बड़े शशपऊज में पड़ा और सोचने लगा कि ऐसी कार्रवाई किसने की, कब की और किस गरज ले को ! बहुत कुछ गौर करते करते मैं यही समझा कि यह भी उसी अजनवी और हलौड़ औरत की कार्रवाई है और ऐसा उसने या तो मुझे तङ्ग करने के वास्ते किया है, या किला ख़ास ग़रज़ से! खैर, इसके बाद मैं उन बाकी के तीनों पुतलों के पास पहुंचा, लेकिन यहां भी मेरे खातिरखाह कोई बात न हुई, यानी उन तीनों के सिरों पर की भी की लें अपनी जगह से न दिली । गरज़ यह कि जब उन चारों दरवाजों में से कोई भी दरवाजा न खुला और न मैंने पलग के नीचे वाली सुरंग का कोई सुराग पाया तो घबवा कर मैं अपनी चारपाई पर बैठ गया और तरह तरह के खयालों के दर्या में गोते खाने लगा। मैंने दिल ही दिल में कहा कि,-"यूसुफ़! ले वेरी कुल उम्मीदों का खातमा अब यहीं है। जायगा और तू वे आब दाने के इसी कैदखाने में, जो कि कब से कम सतबा नहीं रखता है, तड़प तड़प कर मर जायगा !" ___ या इलाही, अब मैं क्या करूं और क्योंकर इस बलासे छुटकारा पाऊं। मुझे कोई तर्फीब एसी नहीं सूझती थी, जिससे मैं वहां से निकलने की राह पाता ! मैंने पहिले तो यह सोचा कि उसी रंगीली औरत ने मुझे चिढ़ाने के लिये सब रास्तों को बन्दकर दिया है, इस