पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२७

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  • शाहीमहल सरा से अपना मुंह काला कर! आज से मैं कभी तेरा नाम भी न लूगा और यही तसवीर करूंगा कि गोया दिलाराम मर गई !"

यह सुनकर बह खिलखिला पड़ी और बोली, जी, जरत तुमने बड़ा भारी धोखा खाया,जामुझे दिलाराम समझा यह सुनकर मैं चहुंक उठा और बोला- तो तु कौन है?" वह,-बी, दिलाराम की वफादार लौंडी। मैं,--"तो तू इतनी देर तक ऐली शरारत क्यों कर रही थी। वह,--इसलिये कि जिस में आपको हद ले जियादह गुस्सा आजाय । मैं,- इसका सबब वह यही कि जिसने अपनी वफ़ाक्षर या बेवफा, पाकदामन या फाहिशा दिलाराम के मरने की खबर कर जियारह गमगीन न हो! मैं,-"हैं, या दिलाराम अब दुनिया में वर्करार नहीं है" वह,-"नहीं, नज़ीर के मारे जाने की खबर को सुन कर उसने खुदकुशी करडाली। मैं,-खैर जो कुछ हुआ. बिहतर हुआ,लेकिन यह सा तू बतला कि उस बावली वाले हाल को तूने क्यों कर जाना? वह,-"वी दिलाराम ने मरने से पेश्तर मुझ पर अपने बहुत से भेद जाहिर करदिए थे, जिसमें आप को मेरी बातों पर यकीन हो और आप यह जाने कि जो कुछ मैं कह रही हूं, बिलकुल सही वो मैं, भलो दो एक और पोशीदा हाल तो तू बयानकर १॥ वह,- कौनसा हाल इयान करू ? बुगदादी ऊंट का हाल कहूं, था जाफ़रानी जेाड़े का,सीपकी डिचिया का हाल कहूं या पुखराज' अगूठी का; और दर्यायी किश्ती का हाल कहूं, या नखाल को लौंडी का!!!