पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/२४

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  • लखनऊ को कत्र*

मैं:- यह मेरी खुशी रही ! हिल चाहेगा करूगा; ना चाहेगा, न करूंगा!" कहातो फिर मैं भी अगर चाहूंगी, सच कहूंगी, चावंगी, झूर कहूंगी! मैं- आहमजाक रहने दो और मिहरवानी करके सच कहो कि तुम कौन हो!. घह,-तो फिर मैं कहती !" मैं,- अल्लाह, कहामी !" वह,- देखिए, जग अपने दिल को सम्हालिए!" मैं,--" माह तौवः ! अजीब शैतान से पाला पड़ा! . घह,-- और मुझे एक हैवान से !!! " मैं,-" या खदा! अन्द मैं क्या करू !" वह,-" झखमारो!" यह सुनकर फिर मुझे गुस्सा आया और में जोर से उसकी तरफ भरटा, लेकिन यह शैतान की रूह पहलेही से होशियार थी, इसलिये मैं उसे पकड़ न सका और तीन चार बार चारपाई के चक्कर लगाकर फिर मैं ठहर गया और बोला,--- “अब मैं तुमसे हारा, इसलिये बराहे मिहरवानी, यह बतलाओ कि तुम कौन हो?" यह सुनकर उसने एक अजीब ढंग से अंगड़ाई ली,जिसका कि बयान में नहीं कर सकता. और कहा,

  • प्यारे, यूसुफ़ ! मैं शेरी वफादार बीबी हिलाराम' हूं!"

____दिलाराम ! बफादार दिलाराम ! " मैंने घबराकर कहा, प, त दिळाराम है ! काली चूडैल ! तू दिलाराम है ! अय गजब तू मेरी वफ़ादार दिलाराम है ! तोचः तौर !जग अपनी सूरत तो देख!, ___ उसने कहा,--मैं अपनी सूरत बखूबी देख रही हूं,क्यों कि मिस्त भाईने के तुम मेरे रूबरू मौजूद जो है !