पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/११

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  • शाहीमहलसरा * दूसरा परिच्छेद।

दूसरे दिन जब भेगी आंखें खुली तो मैंने अपने तई फिर उसी पुतलोंवाली कोठरी में पाया, जिसमें कि पेश्नर मैं कुछ दिनों तक रह चुका था । इस अजीब तमाशे को देखकर मेरी तो अक्ल हैरान हो गई और मैं रह रह कर यही सोचने लगा कि या खुदा ! अब तक क्या मैं माप देख रहा था लेकिन हज़ारहां कोशिश करने पर भी मैं उसे चाबनमान सका, क्योंकि वह तमाशा ही ऐसा था कि जिले भयाव समझना इन्सान के लिये बिल्कुल नामकिन है। खैर, मैं बारपाई पर उठ बैठा और रोशनदान से आते हुए हल के उजाले में चारों तरफ़ नजर दौड़ा कर उस कोठरी को देखने लगा। वह कोठरी विनकुत भारी बुहारी लाफ थी, पलंग की चादर और तकिार के गिलाफ़ सुथरे थे और मेरी किताब वगैरह कुल्ल चीजे करीने से एक मिपाई पर रक्खी हुई थी। यह सच था, लेकिन आज उस कोठरी हर चहार तरफ एक पुनले बनेहुएथे, उनमें से सीन आर के तीनों पुतली के हाथों में तलवारेन थी, सिर्फ एक उसी पुतले के हाथों में नल्वारें थी, जिधर से मैं हम्माम में जाता थ: यह हाल देख करघुझे वा ताजय हुआ और मैं चारपाई सेनांचे उता कर कोठरी में उन तलवारों को खोजने लगा, पर उनका उस कोठरी में कहीं नामोनिशान भी न था। पेश्नर जब मैं उन पुतलों के करीब जाना था तो उनके हाथ उठने थे और तलवारें तानते थे, लेकिन अब तो उनके हाथो बारें नहीं थी, और न घे अपना हाथ ही उठाते थे। पेश्कर जब एक मर्तवः उन सभी के हाथों से तल्वार मैंने ले ली थीं, तब भा उन सभों न हाथ उठाए थे और मैं उनके सिर पर को कोल ऐंठ कर उन रास्तों से कारियों में गया था, लेकिन आज हजारों कोशिश करने पर भी मैं उनके सिरों पर को उन पेची का न घुमा सका और न उनके हाथों को ही ज़रा हिला सका; या आज वे सचमुच बेजान पुतले की तरह बिना हिले डोले खड़े थे।