पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१०४

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  • लखनऊ की कत्र* मैंने उस ख़त के पढ़तेही मारे गुस्से के टुकड़े टुकड़े कर डाले और लात मार कर खाने के सामान को मेज़के ऊपर से फ़र्श पर फेंक दिया। मैंने भी दिलही दिल में इस बात का पक्का इरादा कर लिया कि देख आन आनेपर इन्सान क्योंकर आबोदाने से किनारा करता और खुशी से अपनी जान दे डालता है ! __बस, पक्का इरादा करके, यानी मरने के लिये बिल्कुल तयार है। फर मैं कमरे के फ़र्शको उलट कर ज़मीनमें वैठ गया और कुल कपड़े उतार कर सिर्फ एक लुंगी रहने दी। उस वक्त मुझे निहायत आराम मालूम हुआ, जब मैं खुदा की याद में मशगूल हुआ और तहे दिल से उस पाक परवरीदेगार की इबादत करने लगा। फिर किधर दिन जाता है किधर रात जाती है, इसकी कुछ खबर मुझेन रही! कमरे में अंधेरा है, या रौशनों की गई है, इसकी तरफ मेरी जरा तवजहन थी और न इसी बात का मुझे इस वक्त खयाल था,कि मैं कौन हूँ, कहां हूं, किधर हूं, क्या कर रहा हूं, किस हालत में हूं और मेरी दिली स्वाहिश क्या है!!!

- इसी तरह खुदा का इबादत करते मुझे कै दिन गुज़रे, इसकी मुझे कुछ भी ख़बर न रही। इतने ही में मैं क्या देखता हूं कि कोई शख्स मेरे कंधे पर हाथ रखकर यों कह रहा है कि,-"अय अजीज़ यसुफ़! क्यों नाहक अपनी जान खोकर खुदाके गज़बमें पड़ा चाहता है। उठ, गहा, धो, खा, पी, और सब्र के साथ अपनी किस्मत का तमाशा देख! इस मौके पर ज़िद करने से सिवा नुकसान के फायदा कुछ भी तेरे हाथ न लगेगा। ओह, आज चार रोज़ हुए कि तूने एक कृतरा पानी भी अपने मुंहमें नहीं डाला । यह तेरो सरारत वेवकूफी और हिमाकत है। ...नाज़रीन चाहे, इस बात पर यकीन करें या न करें, लेकिन मैं सच कहता है कि मैंने ऊपर लिखी हुई बात सुनकर आंखें खोलदीं