पृष्ठ:लखनऊ की कब्र (भाग २).djvu/१०३

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शाहीमहलसरा* के वक्त आज कोई खाना पहुंचाने आता है या नहीं ! गोमुझे भूख न थी, क्योकि दिन के वक्त मैंने इस कदर ऐर:भरा था कि अब दुबारे खाने को मुतलक ज़रूरत न थी, लेकिन सिर्फ इसी खयाल से मैंने यह बात सोचीकि देखं इस वक्त कई खाना लेकर आता है या नहीं ! आखिर खुदा का नाम लेकर मैं पलंग पर जा लेटा और आधी आंखें बन्द करके उस दरवाजे की तरफ देखता रहो, जिघरसे वेगम और लौंडी आया करती थीं। लेकिन अफसोस ! मेरा सेाचना सब फजल हुआ और खाना देने तो क्या, केई सुबह के खाने के जठे बरतन उठाने भी न आया! लाचार, आधारात तक मैं सिर मारकर सरहा और सुबह जब सोकर उठा तो देखा कि मेाके ऊपर ताजा खाना रक्खा हुआ है !!! यह देखकर मुझे निहायत गुस्सा आया और मैं उहकर मसनद पर जा बैठा और कलमदान में से एक परता कागज़ का लेकर उस पर यह लिखा कि, जब तक मेरी स्वता मुआफन की जायगी और मुजो आपका दीदार नसीब न होगा,मैं अबसे खाने में हाथ भी न लगाऊगा और बगैर आबोदाने के तड़प २ कर मर जाऊंगा।" बस, यह लिख कर उस पुरजे को मैंने खाने की रकाबी में रख दिया और गुसल करने के वास्ते कोठरी में चला गया। वहांसे जब मैं एक घन्टे के बाद वापस आकर मसनद पर बैठा तो मेरी नज़र कलमदान पर रक्खे हुए एक परचे पर पड़ी। चद मैंने उसे ठालिया और देखा तो उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था तुम्हारी शरारत का यह नतीजा है, तुम्हारी उदुलहुक्मी का यह वायस है और तुम्हारी गुस्ताखी का यह इनाम है कि तुमसे कत्तई किनारा किया गया। अब तुम किलीके दीदार देखने या इस कैद से छुटकारा पाने की ताजीस्त अम्मीद न रक्खो और याद रखा कि चाहे तुम बगैर आबोदाने के तड़फ तड़फ कर मर भी जाओ, लेकिन इससे तुम्हें कोई फायदा न होगा और भूख वह चीज़ है कि इन्सान उसे किसी तरह पश्तिही नहीं कर सकता !"