पृष्ठ:लखनउ की कब्र - किशोरीलाल गोस्वामी.pdf/५७

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ॐ शाहीमहलसरी * उसके खिंचतेही एक धमाके की आवाज़ हुई और उसके बगल वाल? ' थक पत्थर ज़मीन के अंदर घुस गया । यह तमाशा देखकर मैं बहुत चपकाया और खुद को याद कर धीरे २ उस राह के अन्दर घुस गया। भीतर घुसकर मैने देखा कि दूसरी ओर भी दीवार में वैसा ही साँप बना हुआ है और वह भी एक बालिश्त दीवार से बाहर निकला हुआ है। यह देखकर मैने उस सांप को भीतर की तरफ ठेल दिया तो चट वहाँ का पत्थर बराबर हो गया और वजे का नामोनिशान भी न रहा। | अब मैं दूसरी तरफ़ था, लेकिन उस ओर भी साँप की आँखों से निकलती हुई अजीब चमकने कुछ दूर तक उजाला कर रखा था । लेकिन उस उजाले से मेरा काम नहीं निकलता था। पहले तो मैंने यह सोचा कि अगर इस सप की आँखों के दोनों जवाहिर में लेस्कू तो मेरा बहुत काम निकलेगा; लेकिन जब मैं उन्हें न उखाड़ सका वो लाचार होगया और उस सुरंग में आगे की ओर मैंने पैर बढ़ाया। वह सुरंग करीब चार हाथ के चौड़ी, इतनी ही ऊची पत्थरों की दीवार से मज़बूत और आगे की ओर बराबर ऊँची होती गई थी। मन उसकी नम थी और शायद ज़मीन में पत्थर नहीं बिछा था; खैर, मैं खुदा २ करता हुआ आगे बढ़ो और ज्यों ज्यों में आगे बढ़ता गया, साथ ही साथ अंधेरा भी खूब ही बढ़ता गया। । यहीं कुछ दूर जाकर वह सुरंम धूमी और इसी तरह कई जगह पर घूमती हुई एक मुकाम पर जाकर खतम होगई । वह सुरंग मेरे अंदाज़ से ढाई सौ कदम से कम लंबी न रही होगी । . अध में फिर तरदूदुद में पड़ गया, क्योंकि सुरंग के खतम होजाने पर अंधेरे के सब ग्रह मैं नहीं जान सकता था कि वहाँ की क्या कैफियत है या उस जगह से अपना छुटकारा क्योंकर, होसकता है। ... मतलब यह कि जब मैं हर हर तरफ़ बहुत कुछ टोल चुका और कोई चीज़ इस किस्म को मैने न पाई कि जिसकी मदद से में इस