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लखनऊ की कब्र

बुरी तरह से मेरी जान ली जाती, इसका अंदाजा तुम्हारे अलावे में भी बखूबी कर रहा हूँ। अब तुम सच बतलाओ कि तुम्हारी ऐसीही मन्शा थी, या नहीं ! ! !"

मेरी बातों को बड़े ग़ौर के साथ वह खब्बीस बुढिया सुनती रही और उसके खूंखार चेहरे पर उस वक्त बेढ़ब चढ़ाव उतार होते रहे; जिससे मैंने बखूबी समझ लिया कि उसने अपने दिल की बात मेरे मुह से सुनकर बड़ा ताज्जुब किया और अखीर में यों कहती हुई वह ची गई कि, "बस, अब तुबे अबोदाने के तड़प तड़प करमरजा !!!"

उसके पीठ फेरतेही दरवाजा बंद होगया और मैं फिर अपनी बदकिस्मती पर अफ़सोस करने लगा।

वह मोमबत्ती, जो उस काफ़िर बुढ़िया ने दी थी, अभी तक कोठरी के फर्श पर खड़ी हुई चल रही थी, लेकिन अब मैंने उसका जलाना बेफायदे समझ, उसे बुझाकर अपने जेब के हवाले किया और मैं तरह तरह के ख्यालों में उलझ गया ।

मैंने कयास से ऐसां समझा कि अब शायद दो पहर का वक्त दुई हो! क्योंकि मैं दोपहर को खाना खाया करता था, इसलिये मुझे भूख ने सताया और प्यास ने उससे भी ज्यादह मुझे परेशान किया।

मैं शायद यह कह आया हूँ कि महीना जेठ का था, जब में नजीर को सर और खुद नजीर बन कर उस मक्कार बुड्ढी के हमराह उस अलीशान मकान में जाकर इस आफ़त में फंसा था अफसोस, अगर मेरी दिलाभ मुझसे जुदा न की गई होती तो क्यों में रात को यों गिलों की तरह चूमा करता और इस बल में फंसता !!!

आज दो महीने से एक दिन ऊपर हुआ कि मेरी दिलरुबा दिलाराम का पता नहीं है। मैंने उसे बखूबी खोजा ढूंढा, और तलाश किया; मगर सच कोशिश बेफायदे हुई, और मेरी प्यारी दिलाराम का कहीं पता न लगा। बस, जबसे वह गायब हुई हैं, मैं दीवाना हो रहा हूँ