और वहाँ की सुन्दरियों का वर्णन करते हुए कवि का कथन है कि अप्सरा जैसी कामिनियाँ कामदेव के रथ से उतर कर अपने घड़े भर रहीं थीं :
भरे जु कुंभयं घने, इक्षा सु पानि गगन ।
असा अनेक कुंडन, .... .... ....। ५६
सरोवर समानयं, परीस रंभ जानये ।।
बतक्क सारे संमय, अनेक हंस क्रस्मयं ।। ५७
भरै सु नीर कुंभयं, ... .... ....
| अरुढ काम रथ्थर्य, सु उत्तरी समथ्र्य ।। ५८, स० ४२
कन्नौज में जर्जरित ( चौथे प्रहर की } रात्रि में बट लिये हुए, कुर्ला पर 'पट डाले, गंगा तट पर एक सुन्दरी को विचरण करते देख कवि ने उक्ति की कि यह मुक्ति-तीर्थ पर काम-तीर्थ की हथलेवा ( पाणिग्रहण } है :
ज़रित रयन घट सुदरी, पुट कुरन तट सेब !
मुरति तिथ अरु काम तिथ, मिलहि थह हथलेव ।। ३२३
तदुपरांत कवि की पैनी काव्य-दृष्टि रूप-सौंदर्य का चित्र खींच देती
है-दो सुवर्ण अंगों को जिनके कंठ प्रदेश पर भौंरे क्रीड़ा कर रहे हैं उन्हें पुष्प सदृश कामराज के प्रसन्नतार्थ पूजा करने के हेतु लिये है, उसके उदर में त्रिवली है और वहीं इसकी कटि में घंटियों का मधुर स्वर हो रहा है। इस प्रकार अनंग के रंग की वीर वाली उस सुन्दरी और मुक्ति का त्रिवेणी पर मेल हुआ है :
उभय कनक सिंको भृग कंठीव लीला ।
पुहप ग्रुनर पूजा विप्रवे कामराजं ।।
त्रिवलिय गंगधारा मद्धि बंटीव सबदा ।
मुगति सुमति भीरे नंग रंग त्रिवेनी ।। ३२४
थोड़ा और लागे बढ़कर देखा कि चंचल नेत्रों वाली चपल तरुणियाँ
तथा अपने दृष्टिपात से चित्त हरण करने वाली सुन्दरियाँ सुवर्ण कलशों को झकोर कर गंगा-तट पर जल भर रहीं थीं———
द्रिग चंचल चंचल तरुनि, चितवत चित्त हरति ।
कंचन केलेस झकौर कें, लु दर नीर भरंति ।। ३३८
इसी स्थल पर कवि ने भावी रोमांस का शिलान्यास करते हुए नारी-सौंदर्य का लुभावना चित्र खींचा है } जयचंद की सुन्दरी दासियाँ अभी जल ही भर रहीं थीं कि अचानक उनमें से एक का चूघट सरक गया और सामने सौंदर्य के सागर पृथ्वीराज दिखाई पड़ गये। फिर क्या था, हाथ को सोने