गन्धर्व का प्रेसर बनकर पृथ्वीराज को नाना युक्तियों से प्रबोधते, सन्तुष्ट और प्रेरित करते हुए देवगिरि लाने का वृत्तान्त कवि ने दिया है ।'
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-- 'पत्रोसवें समय के बाद बहुत दूर तक शुक और शुकी का पता नहीं चलता । सैंतीसवें समय में वे फिर द्विज और द्विजी के रूप में आते हैं । सम्भवत: तैंतीसवें समय का प्रसंग उनसे भूल से छूट गया है । इस इन्द्रावती व्याह समय ३३' के अन्त में उज्जैन के राजा भीम को कन्या इन्द्रावती और पृथ्वीराज का शयनागर में प्रथम मिलन और रति-क्रीड़ा के प्रसंग में नव रसों की स्फुरणा का संकेत कौशल से करते हुए-
रस विलास उपज्यौ । सधी रस हार सुरत्तिय ।।
ठांम ठाम चढ़ि हरन । सह कहकह तह मन्तिय ।।
सुरत प्रथम संभोग । हैंह हंहं मुष रट्टयि ।।
ना ना ना परि त्रबल । प्रीति संपति रत थट्टिय ।।
शृंगार हास करुणा सु रुद्र । वीर भयान विभाछ रस ।।
अदभूत संत उपज्य सहज । सेज रमत दंपति सरस ।। ८१,
शुक दम्पति संमरेश के इस पूर्व रस का श्रास्वादन करते दिखाई देते हैं :
सुकी सरस सुक उच्चरिंग । गंधब गति सो ग्यान ।।
इह अपुब्ब गति संभरिय । कहि चरित चहुत्रान ।। ८२
इसी 'समय' में—
सो मति पच्छै उपजै । सो मति पहिले होइ ।।
काज न विनसै पनौ । दुज्जन हँसै न कोइ ।। ५०,
पढ़कर, मेाचार्य की 'प्रबन्ध-चिन्तामणि' का सुख और मृणालवती सम्बन्धी निम्न छन्द स्मरण या जाता है तथा रासो का उपयुक्त छन्द इसी की छाया प्रतीत होता है :
जा मति पच्छइ सम्पूजइ । सा मति पहिली होइ ।
मुञ्ज भाइ मुणलवइ । बिधन न बेढइ कोइ ।।
मुजराजग्रबन्ध, पृ० २४,
सैंतीसवें 'पहाड़राय सम्यो' के व्यारम्भ में शुक्र और शुकी, द्विज और द्विजी के रूप में परस्पर जिज्ञासा करते हुए दिखाई देते हैं :
१. छं० ६९--२२५ ; २. हिंदी साहित्य का श्रादिकाल, पृ० ६४ ;