पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१४०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३० )

पिय ने दिलवंती । अबली यति गुज नेन दिद्वाया ।।
परसान सद्द हीनं । भिन्नं कि माधुरी माघ ।। ११६५, २०६१;

( और कुछ गाया छन्द पिंगल में भी हैं ) परन्तु इनकी भाषा मात्र के आवार पर रासो की भाषा का फैसला करना अनुचित है । जैसे कोई 'रामचरितमानस' के श्लोकों की परीक्षा करके यह कह दे कि मानस की भाषा संस्कृत हैं वैसा ही निराधार वर्तमान रासो के नाथा छन्दों की भाषा पर आधारित निर्णय भी होगा । इस प्रसंग में इतना और ध्यान में रखना होगा कि प्रबंध की दृष्टि से राखी के गाथा छन्द महत्व नहीं रखते क्योंकि उन सबको हटा देने से कथा के क्रम में अस्तव्यस्तता नहीं होती । परन्तु यही बात उसके दूहा और कवित्त नामधारी छप्पय छन्दों के बारे में नहीं कही जा सकती: इन छन्दों से ही उसका प्रबन्धत्व है परन्तु इनकी भाषा अपभ्रंश नहीं वरन् पिंगल है ।

मूल रासो की अपभ्रंश कृति कभी सामने आने पर उस अपभ्रंश के प्रकार पर विचार करना अधिक समीचीन होगा । पृथ्वीराज के काल में अर्थात् बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संस्कृत और प्राकृत की भाँति अपभ्रंश भी क्लासिकल ( सम्पुष्ट ) हो गई थी' तथा उसमें और ग्राम्य ( या देश्य ) भाषा में भेद हो गया था ' अस्तु उक्त काल में वह बोलचाल की भाषा न थी । काशी और कन्नौज के गाहड़वालों की भाँति अजमेर के चौहान शासक बाहर से नहीं आये थे वरन् उक्त प्रदेश के पुराने निवासी थे इसीसे वे साधारण जनता की भाषा की उपेक्षा नहीं करते थे, उनके यहाँ जिस प्रकार संस्कृत रचनायें समादत थीं, उसी प्रकार अपभ्रंश और देश्य भाषाओं की कृतियों को भी प्रोत्साहन मिलता था ।

यदि डिंगल और पिंगल का भेद विद्वत् जन न करें, जो राजस्थान की बारहवीं शताब्दी से बाद की रचनाओं के उपयुक्त विभाजन के लिए बहुत समुचित ढंग से किया गया है, तब ना० प्र० स० द्वारा प्रकाशित रातो की भाषा को उत्तर कालीन अपभ्रंश की मूल रचना का कुछ विकृत


१. डॉ० गणेश वासुदेव तगारे, हिस्टारिकल ग्रैमर या अपभ्रंश, भूमिका, पृ० ४;

२. श्राचार्य हेमचन्द्र, काव्यानुशासनम् ८-६ ;

३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आदि काल, पृ० २५-३३;