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मुनि कान्तिसागर की अपभ्रंश वाली रासोप्रति उनके अतिरिक्त और किसी ने नहीं देखी तथा ऐसी कोई प्रति उनके पास हैं भी यह तक सन्देहास्पद है । अस्तु उसे यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत करना असंगत ही है । मुनिराज जिनविजय जी द्वारा शोधित 'पुरातन प्रबंध संग्रह' के 'पृथ्वीराज प्रबंध' और 'जयचंद प्रबंध' से उल्लिखित छप्पय छन्दों की भाषा निश्चय ही अपभ्रंश है और वे कथा विशेष से पूर्वापर सम्बन्ध की स्पष्ट घोषणा करते हुए मूल प्रबन्ध काव्य से उद्धरण के साक्षी हैं। इन छन्दों मात्र के आधार पर डिंगल और ब्रज भाषा में विकसित होने वाले क्रमशः गुर्जरी और शौरसेनी अपभ्रंश का निर्णय करने लगना साहस मात्र ही कहा जायगा । बो सभा वाले प्रकाशित रासो के अधिकांश गाहा या गाथा छन्द प्राकृताभास अपभ्रंश अथवा अपभ्रंशाभास देश्य भाषा में हैं ।

कुछ छन्द देखिये :

पय सकरी तुमतौ । एकतौ कनक राय भोयंसी ।।
कर कंसी गुज्जरीय । रब्बरिय नैव जीवंति ।।४३,
सत्त खनै आवासं । महिलानं मद्द सद्द नूपुरया ।।
सतफल बज्जून पयसा । पब्चरिय नैव चालंति ।। ४४,
रब्बरियं रस मंदं । क्यूँ पुज्जति साथ अभियेन ।।
उकति जुकत्तिय ग्रंथ । नत्थि कत्थ कवि कत्थिय तेन ।। ४५,
याते बसंत मासे । कोकिल झंकार अब वन करियं ।।
बर बब्बूर विरवंय । कपोतयं नैव कलयंति ।। ४६
सहसं किरन सुभाउ । उगि आदित्य गमय अंधरं ।।
अयं उमा न सारो । भोडलयं नैव झलकति ।। ४७
कज्जल महि कस्तूरी । रानी रेहेंत नयन श्रृंगार ।।
कां मसि घसि कुंभारी । किं नयने नैव अंजंति ।। ४८,
ईस सीस समानं । सुर सुरी सलिल तिष्ट नित्यान ।।
पुनि गलती पूजारा । गडुवा नैव ढालति ।। ४९, स०१;
तप तंदिल मे रहियं । अंग तपताइ उप्परं होई ।।
जानिज्जै कसु लाल । घटनो अंग एकयौ सरिसौ ।। ३७९,
मुच्छी उच्चस बंकी । बाल चंद सुभ्भियं नभ्भ ।।
गज गुर घन नीसानं । रीसानं पंग षल याई ।। ४११,स०२५;
सम विस हर बिस तं । श्रप्पं होई विनय बसि बाले ॥
पट नवरत दुस सद्ध । गारुड़ बिना मंत्र सामरियं ॥१०४, स०४६ः