७४ राष्ट्रीयता और समाजवाद गया । यह आन्दोलन उस समय अवधके कई जिलोंमें फैला हुआ था। किसानोके दृढ सगठनको देखकर अवधके अधिकारियोंने लगान कानूनके बदलनेकी आवश्यकताको स्वीकार किया। नोटिस वेदखली रोक दी गयी और नया कानून बनाकर किसानोको हीनहयातीका हक दिया गया । उस समय देशमे असहयोग ग्रान्दोलन चल रहा था। गवर्नमेट यह नही चाहती थी कि किसान उस ग्रान्दोलनमें शरीक हो। इस मंगासे भी किसानोकी कुछ माँगे स्वीकार करना यावश्यक था। उनकी मुख्य मांग बेदखलीपर रोककी थी। जैसे ही यह मॉग स्वीकृत हुई किसानोकी असह्योगमे दिलचरपी कम हो गयो । काग्रेस किसानोकी याथिक मॉगोके लिए लडना नहीं चाहती थी, किन्तु अपने आन्दोलनमें उसका सहयोग प्राप्त करना अवश्य चाहती थी। धीरे-धीरे असहयोग आन्दोलन भी शिथिल पड़ गया । सन् १९१९ के अन्तमे हरदोई, खीरी, सीतापुर और लखनऊ जिलोमे 'एका आन्दोलन' के नामसे किसान आन्दोलन फिर प्रारम्भ हुग्रा । यह आन्दोलन ताल्लुकेदार पीर गवर्नमेण्टके अधिकारियोके विरुद्ध था। इन जिलोके ताल्लुकेदार कागजमे दर्ज लगानसे कही अधिक वसूल करते थे। इसी कारण किसानोमे वेचैनी थी। किसानोका एक प्रसिद्ध नेता मदारी पासी था जिसके पकडनेमे अधिकारियोंको काफी तरह द उठानी पड़ी थी । जव कभी किसानोका कोई स्वयंसेवक पकड़ा जाता था तो वह बड़ी संख्यामे इकट्ठा हो जाते थे और उसको छुड़ा लेते थे। इसके कई उदाहरण हमको मिलते है। किसानोने दर्ज लगानसे अधिक देनेसे इनकार कर दिया । कई जगह ताल्लुकेदारके आदमियोसे मारपीट भी हो गयी। एका सभा दो प्रकारकी होती थी । एक तो शुद्ध आर्थिक और दूसरेमे साथ-साथ राजनीतिक कार्यक्रम भी रहता था । सभामे स्वराज, स्वदेशी और अदालतोके वहिष्कार सम्बन्धी प्रस्ताव पास होते थे। प० जनार्दन जोगी, जो उस समय रायबरेलीमें डिप्टी कलेक्टर थे, अपनी एक रिपोर्टमे लिखते है कि एक रियासतमे कागजमे दर्ज लगान ०) रु० था, लेकिन ताल्लुकेदार अपनी रिप्रायासे ६५००) की फाजिल रकम वसूल करता था। दूसरी रियासतमे ३२०००) रु० के स्थानमे रियायाने ४५०००) २० वसूल किया जाता था । जोशीजी आगे चलकर लिखते है कि इसमे आश्चर्यको क्या वात है यदि किसान इस सडी पद्धतिके विरुद्ध विद्रोह करता है । श्रीयुत कालसर आई. सी. एस. लिखते है कि एक रियासतमे लगानकी रकम १७००) रु० थी लेकिन रियायासे ५७००) रु० वमूल किया जाता था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इन जिलोमे साधारणत. रिायासे दर्ज लगानका डेवढा वसूल किया जाता था। किसानोके असन्तोपका एक और कारण भी था। जो भूमा अववावकी शक्लमे रियायासे लिया जाता था उसका परिमाण निश्चित नही था। एक खाँची या एक गठरी देनेका रिवाज था। किन्तु खाँची और गठरीकी तौल नियत नही थी। एक मनसे लेकर ४ मनतक खाँचीकी तौल और २० से ४० सेरतक गठरीकी तौल समझी जाती थी। चूंकि उस समय भूसेकी कीमत वहुत वढ गयी थी, इसलिए किसानोको इतना भूसा देना और भी अखरता था। अबवावके सम्वन्धमे कानून भी स्पष्ट न था। जगह-जगह किसानोकी पचायते कायम हो गयी थी ७७०००
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