अभिभाषण ७१ हमारे प्रान्तके काश्तकारीके कानून भी बहुत खराव है। विशेपकर अवधमें किसानोकी अवस्था अत्यन्त दयनीय है । उनसे कई जगह गैर-कानूनी टैक्स भी लिये जाते है। हरी वेगारी और रसद देनेके अलावा उनको नाजायज अववाव भी देने पड़ते है । वेदखलीकी तलवार सदा सिरपर लटकती रहती है । पैदावारकी कीमत गिर जानेसे किसान एक अजव मुसीवतमे है । यद्यपि लगानमे तखफीफ की गयी है तिसपर भी किसानको इससे वहुत आसाइश नही हुई है । वहुत जगह तो जमीदारोने अपने किसानोकी यह रकम मुजरा भी नही दी है और उनसे पूरा लगान वसूल कर लिया है। इस रियायतके होते हुए भी वहुतसे किसान अपना लगान अदा नही कर पाते है । नतीजा यह होता है कि वह बेदखल कर दिये जाते है या बेदखलीसे वचनेके लिए उनको कर्ज लेना पडता है । विचारे किसानोने सन् १९२०-२१मे एक वृहत् आन्दोलन कर बड़ी मुश्किलसे अपनी एक मांग पूरी करा पायी थी। पहले अवधमे कोई किसान ७ वर्षसे अधिक खेतपर काविज़ रहनेका हकदार न था। ७ वर्ष वाद जमीदार जव चाहता था उनको वेदखल कर देता था । वेदखलीके खिलाफ तीन आन्दोलन होनेकी वजहसे गवर्नमेण्टने १९२२ ई०मे कानूनमे कुछ परिवर्तन किया था। उनका हीनहयाती हक मान लिया गया था, किन्तु दूसरे प्रकारसे वेदखल करनेकी कई धाराएँ कानूनमे वढा दी गयी थी । उदाहरणके लिए यदि किसान एक विस्वाभर भूमिपर भी जमीदारीका हक हासिल कर ले तो वह वेदखल हो सकता है । इसी तरह शिकमियोको जमीन उठानेके लिए भी उसकी वेदखली हो सकती है। जमीदार 'फार्म' खोलनेके लिए तथा अपनी सीरके लिए भी खेतसे वेदखल कर सकता है। इस कारण इस कानूनसे यद्यपि कुछ लाभ किसानोका अवश्य हुआ, तथापि वेदखली वन्द न हो सकी। उसकी नयी मदे निकल आयी। किसानोकी पुकार (स्लोगन) आज भी वेदखली बन्द करानेकी है । वे कमसे कम कब्जेदारी चाहते है । उनके लगानका बोझ भी कम होना चाहिये । इस मन्दीके जमानेमे उनकी जोत विलकुल ही लाभप्रद नहीं रह गयी है । इस वर्ष तो वाढने किसानोको विलकुल तबाह कर दिया है । साधारण उपायोसे उनकी अवस्थामे सुधार होना असम्भव है। ग्रामोद्धारकी योजना सदा विफल रही है। जो रकम गवर्नमेण्टने इस कामके लिए मजूर की थी उसका वहुतसा भाग दफ्तरके खर्चमे ही लग गया। ज्यादातर काम दिखाऊ होता है। अधिकारियोको प्रसन्न करनेके लिए ही अधिकतर लोग इसमे थोडा-बहुत दिखावटी काम करते है । किसीको इस कामके लिए वह उत्साह नही है जो होना चाहिये । अव भविप्यमे इस मदके लिए सरकारसे और ग्राट भी न मिलेगा। इसके अतिरिक्त इस तरहकी योजनाएँ आँखमे धूल डालनेके लिए होती है । इन प्रयत्नोसे किसानोकी एक भी समस्या नही हल हो सकती । साँड़की नस्ल सुधारने और गायका दूध पीनेकी पुकार (स्लोगन) शाब्दिक मायाजाल (सोशलडेमागागी) के सिवाय कुछ नही है। किसानोकी मौलिक मांगोकी कथा तो दूर रही उनकी तात्कालिक मॉगोमेसे एक भी मांग इस योजना द्वारा पूरी नही हो सकती। ग्रामोद्धारका जो महकमा खोला गया है उससे गवर्नमेण्टका एक नया सगठन
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