जन-जागृतिका पुनर्जन्म ५७ प्रश्नोपर भी दोनों दलोमे मतभेद था। नया दल औपनिवेशिक स्वराज्यको भारतके लिए व्यावहारिक और अन्तिम लक्ष्य नही मानता था। श्रीअरविन्द घोषके शब्दोमे "काग्रेस कन्वेन्शनने ऐसा विधान स्वीकार किया जो सकुचित एकागी, अलोकतन्त्रात्मक था और इस ढगसे बना था कि उसमे जनताके प्रतिनिधियोका स्वतन्त्र निर्वाचन मर्यादित हो गया था । "नेशनलिस्ट' दल लोकतन्त्र, विधानवाद और प्रगतिका समर्थक था । 'माडरेट' दल जिसकी पुराने नेताप्रोमे अगाध श्रद्धा थी उनके कार्योको भली प्रकार समझे बिना ही उनकी सहायता करता था। जो थोडेसे लोगोके शासन अधिनायक पद्धति और प्रायः प्रतिक्रियावादी अपरिवर्तनके पक्षमे थे।" (देशवासियोके नाम खुली चिट्ठी, १९०८) । नये दलके सिद्धान्तों और विचारोकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है । यह अपनेको 'नेशनलिस्ट' दल कहता था । यो सर्वसाधारण इसे गरम दल (एक्सट्रीमिस्ट) कहते थे । पूर्वी बङ्गालमे बहिष्कारके शस्त्रका कुछ व्यापक रूपमे प्रयोग किया गया और कुछ अशोमें उसे सफलता भी प्राप्त हुई। राष्ट्रीय स्कूल खोले गये, पञ्चायतोकी स्थापना की गयी और जनतामे स्वदेशीकी भावना प्रसारित की गयी। कानूनका साधारणत आदर किया जाता था, इसलिए नही कि उसका भग करना अनुचित था वरन् इसलिए कि यह आन्दोलनकी प्रारम्भिक अवस्था थी। ऐसे समय कानून भग करना अबुद्धिमत्तापूर्ण एव असुविधाजनक होता । इस नयी विचारधाराका देशमे सर्वत्र स्वागत किया गया और वगालमे तो इसने जड़ ही पकड ली। आरम्भसे ही इसे सरकारी प्रहार सहन करना पड़ा, पर सूरतके विभाजनके उपरान्त तो सरकार इसपर बुरी तरह टूट पडी । उसका दमनचक्र पूरे वेगसे चलने लगा, नेता या तो गिरफ्तार कर लिये गये या वे स्वय निर्वासित हो गये। कांग्रेसकी नयी विचारधारा दलको अस्वीकार थी अत उसके सदस्य अनेक वर्पोतक काग्रेससे पृथक् रहे । इस कारण काग्रेसकी शक्तिकी वडी हानि हुई और जनतापरसे उसका प्रभाव बहुत कुछ जाता रहा । आन्दोलन छिपकर चलने लगा और देशमे कितने ही आतकवादी दल बन गये जिन्हे कि वम और तमचेकी पद्धतिमे ही विश्वास था। व्यक्तिगत साहस और अत्यधिक वलिदानके कितने ही उत्तम उदाहरण हमारे सम्मुख उपस्थित हुए परन्तु आतकवाद हमारे कष्टोकी रामवाण औपंधि सावित न हो सका। १९१६मे श्रीमती वेसेन्टके प्रयत्नसे दोनो पक्ष फिर मिल गये । यद्यपि 'नेशनलिस्ट' दल काग्रेसमे पुन लौट आया था पर एकताके लिए उसे अपने पुराने आदर्शोको बहुत कुछ ढीला कर देना पडा । अवश्य ही उसने शीघ्र ही अपना प्रभाव स्थापित कर लिया परन्तु दुर्भाग्यवश उसमे और पुराने उदार पन्थियोमे कोई विशेप अन्तर नही रह गया था। असहयोग आन्दोलनके दिनोम नये दलकी अनेक धारणाएँ कार्यरूपमे परिणत हुई। १९०६-१९०८मे जो प्रयोग छोटे पैमानेपर हुए थे वे १९२१-१९२२मे राष्ट्रव्यापी पैमानेपर किये गये । पर यह बात माननी पडेगी कि नेशनलिस्टदलकी विचारधाराने नीवका काम किया और उसीपर शुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन पुष्पित-पल्लवित हुआ। कुछ लेखकोका ऐसा कहना है कि नया आन्दोलन कुछ अंशोमे प्रतिक्रियावादी
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