५६ राष्ट्रीयता और समाजवाद उन्हें पसन्द न था। ऐसी बातोसे वे घृणा करते थे । जनताको भावनामें, उनके अधिकारो- में उनका दृढ विश्वास था और इसी विश्वासके वलपर वे अधिकारियोसे लोहा नेनेको प्रस्तुत होते थे। उन्होने राजनीतिक 'भिक्षा देहि' की पुरानी नीतिका परित्याग कर दिया। अपनी मुक्तिके लिए उन्होंने अधिकारियोंका मुंह ताकना बन्द कर दिया । इस नयी नीतिको कार्यान्वित करनेके लिए एक नये दलका सघटन किया गया । उन नयी विचार- धारावाले लोगोकी यह निश्चित धारणा थी कि जनताकी संघटित शक्तिके द्वारा ही स्वतन्त्रता प्राप्त की जा सकती है और राजनीतिक रवाधीनताके बिना जनताका नामाजिक, तालीमी, आर्थिक एवं नैतिक अभ्युत्थान भी असम्भव है । इस नवीन विचारधाराके प्रवर्तकोने जनताको शिक्षा दी कि वह स्वावलम्बनका मार्ग ग्रहण करे, स्वदेगीको अपनाये और विदेशी मालका वहिप्कार करे । बहिप्फारसे उनका तात्पर्य केवल ब्रिटिश मालका वहिप्कार करना ही न था, बल्कि यह भी था कि अग्रेजोसे शासन तथा अन्य सार्वजनिक क्रमोके सभी क्षेत्रोमे असहयोग किया जाय । इसके लिए इस दलने जनताको सलाह दी कि वह सभी खिताब छोड़ दे और सरकारी शिक्षण-संस्थानो, अदालतों, कोसिलों और स्थानीय सस्थानोका पूर्ण वहिष्कार कर दे । जनताको आर्थिक स्वाधीनताके लिए इस दलने इसे सलाह दी कि वह अपने देशी उद्योगोको प्रोत्साहन दे और उनकी उन्नति करे । इस प्रकार वहिप्कार एक व्यापक राजनीतिक शस्त्र समझा गया। इस दलने वैधानिक सत्ताको सघटित करनेकी नीति भी निश्चित की और यह सिद्धान्त स्वीकार किया कि यदि नौकरशाही जनताके आत्मावलम्बनके मार्गमें वाधा उपस्थित करे तो निष्क्रिय प्रतिरोधकी नीति चलायी जाय । आवश्यकता होनेपर प्रतिरोधकी यह नीति आक्रामक भी हो सकती थी। इसके अतिरिक्त यह प्रतिरोध किन्ही विशेष कठिनाइयोको दूर करानेके लिए नहीं था, बल्कि एक स्वतन्त्र लोकतन्त्रात्मक सरकारकी स्थापना ही उसका लक्ष्य था । इस नये दलकी महत्ता इस बातमे है कि इसने वर्तमान राजनीतिके मूल सत्योकी अनुभूति की। इस दलके हाथमे भारतको राजनीति जव आयी तो उसने अपनी पुरानी पद्धतिका परित्याग कर दिया और इस प्रकार सर्वप्रथम उसकी ठोस बुनियाद पड़ी। पुराने राजनीतिज्ञोका सारा राजनीतिक दृष्टिकोण ब्रिटिश इतिहासमें विद्यमान था और चूंकि उन्हें जनताकी शक्तिमें विश्वास न था तथा ब्रिटेनकी शक्तिकी भारी धाक उनपर बैठ चुकी थी इसलिए अपनी मुक्तिका पथ खोजनेमे वे सर्वथा असमर्थ थे । नये दलने ऐसी कितनी ही पुरानी धारणानोको नष्ट कर डाला जिनमे कि हमारे उदार-दलीय नेता अव भी चिपटे पड़े थे। १९०८ में कांग्रेस कन्वेन्शनने जो विधान निश्चित किया उसके सम्बन्धमे जो वादविवाद प्रारम्भ हुया उससे नये और पुराने दलोंको अलग करनेवाला मतभेद स्पष्ट हो गया। नया दल चाहता था कि काग्रेस लोकतन्त्रात्मक संस्था रहे । उसने लिखित विधानको मांग उपस्थित की । परन्तु पुराना दल थोड़े ही व्यक्तियोके हाथमें सत्ता बनाये रखनेके पक्षमें था। दोनों दलोमें मतभेदका एक प्रश्न और था। वह यह कि आन्दोलन अपने उद्देश्य, लक्ष्य और भावनामें राष्ट्रीय और प्रगतिशील रहे अथवा अनुदार । स्वराज्यका वास्तविक रूप कैसा हो तथा निष्क्रिय प्रतिरोधकी नीति कैसी रहे- -इस प्रकारके
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