असली और नकली समाजवाद ४६५ उन्होने बना ली है, वह ठीक है । इनमे वहुतसे ऐसे सज्जन है जो समाजवादके वास्तविक स्वरूपसे अपरिचित है, उन्होने वैज्ञानिक समाजवादका अध्ययनतक नही किया है । वैज्ञानिक समाजवाद गम्भीर चिन्तन और अध्ययनका विपय अवश्य है, तिसपर भी उसके स्थूल सिद्धान्तोके समझनेमे कोई कटिनाई नही प्रतीत होती । वहुतसे हमारे ऐसे भाई भी है, जो वैज्ञानिक समाजवादके मौलिक सिद्धान्तोको जानते हुए भी अपनी एक भिन्न कल्पना- को ही सच्चा समाजवाद मानते है । पहले तो हमे ऐसे लोगोका विचार करना है जो कल्पनाके साम्राज्यमे विचरण करते है और तरह-तरहके हवाई महल बनाया करते है। जो देश वर्तमानकालमे हीन दशाको प्राप्त हो गया है और जो अतीतके गौरवकी कथासे विशेष रूपसे प्रभावित है, वह अतीतमें ही स्वर्णयुगकी स्थापना करता है और जब कभी वह अपनी उन्नतिकी बात सोचता है, तो वह उसी स्वर्ण युगको फिरसे वापिस लानेकी चेष्टा करता है । ऐसे देशमे एक ऐसे समुदायका पैदा हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक है, जो विश्वास करता है कि अतीतका समाज ही एक आदर्श समाज था जिसमे गरीब और अमीरका फर्क नही था और जिसमे सारी प्रजा सुखी और समृद्ध थी, वह एक क्षणके लिए भी नही सोचता कि अतीतका वापिस आना कितना असम्भव है । वह इस बातको माननेको भी तैयार नहीं है कि अतीत उतना सुन्दर और मनोरम नही था जितना कि वह सोचता है । हम यह मानते है कि पूंजीवादी पद्धतिकी बुराइयाँ प्राचीन सामाजमे नही पायी जाती थी, पर इसमे भी सन्देह नही है कि उसकी निजकी बुराइयाँ कुछ कम न थी । प्राचीन समाजमे इस वातकी भी आशा नही की जा सकती थी कि श्रमजीवियोका कोई सगटन बन सकेगा, जो उनको अत्याचारोसे छुटकारा दिलावे। इस विचारके लोग समाजवादके प्रभावको बढते देखकर अपनी कल्पना तथा समाजवादके सिद्धान्तोमे सामञ्जस्य स्थापित करनेकी चेष्टा करते है। जिस प्रकार विज्ञानके इस युगमे प्रत्येक मजहब, जो इस नये वातावरणमे जीवित रहना चाहता है, इस बातको सावित करनेकी कोशिश करता है कि उसके सिद्धान्त विज्ञानसम्मत है, उसी प्रकार प्रत्येक समुदाय, जो राजनीतिक क्षेत्रमे अग्रसर होना चाहता है, उसे विवश होकर यह दिखलाना पड़ता है कि उसकी कल्पनाएँ समाजवादके सिद्धान्तके विरुद्ध नहीं है । जो लोग अतीतमे ही स्वर्ण-युगकी कल्पना करते है, वह इस वातको दिखलानेकी चेष्टा करते है कि अतीतका समाज ही समाजवादके सच्चे सिद्धान्तोपर आश्रित था। पाश्चात्य देशोमे तो इसाइयोने इस प्रकारके प्रयत्न किये है । इसीके फलस्वरूप वहाँ क्रिश्चियन सोशलिज्म, ( Christian Socialism ) पाया जाता है । इसके अनुयायियोका कहना है कि क्रिश्चियन धर्म और समाजवाद एक-दूसरेके लिए नितान्त आवश्यक है और क्रिश्चियन धर्म ही समाजवादका नैतिक आधार है । उनका यह भी विश्वास है कि समाजवादको विचार-पद्धतिका जन्म ही इसी धर्मसे हुआ है । यदि अपने देशमे भी इस प्रकारके प्रयत्न किये जाये, तो मुझको आश्चर्य न होगा। ३०
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