फासिज्मका वास्तविक रूप ४६१ अात्मनिर्भरताके भावका प्रावल्य यह सव वाते पूंजीप्रथाके संहारके मुख्य कारण नहीं है, किन्तु एक अनिवार्य रोगके ऐसे लक्षण है, जो रोगका उद्दीपन करते हैं । पूंजीपतियोमे जो दूरदर्शी है वह साफ देखते है कि यदि वह अपने मुनाफेको सुरक्षित रखना चाहते है, तो उनके लिए सिवाय इसके दूसरा चारा नहीं है कि वह स्वयं योजनाके अनुसार राष्ट्रके आर्थिक जीवनका सघटन करे, कमसे कम, व्यापारके प्रत्येक क्षेत्र- मे प्रभावशाली व्यापारियोने इस वातको मान लिया है कि यदि रोजगारमें मुनाफा कमाना है तो उत्पादनकी शक्तियोको सीमित और नियन्त्रित करना पडेगा । विना इस सिद्धान्तको सामान्य रूपसे स्वीकार किये हुए ही कई व्यवसायोमे स्पर्धाको रोकनेका प्रवन्ध किया गया । व्यवसायियोने आपसमे पैदावार तथा कीमत निर्धारित करनेके लिए समझौते किये और एक समझौतेके अाधारपर वाजारोका बंटवारा कर लिया। कभी एक देशके भीतर एक व्यवसायके विविध कारखानेदार आपसमे तसफिया कर लेते थे और कभी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते भी होते थे। अपने वर्गके स्वार्थोकी रक्षाके लिए एक सामान्य नीतिका अनुसरण करना पूंजीपतियोके लिए आवश्यक हो गया है, किन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है क्योकि बडे-बड़े व्यापारियोके लिए अपने व्यापारपर अपना अक्षुण्ण अधिकार छोडना दुष्कर है और सबके लिए राष्ट्रीय आधारपर व्यवसाय-योजनाकी आवश्यकता समझना भी असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक स्पर्धा पूंजीपद्धतिके अनुसार सगठित राष्ट्रोके लिए व्यवसायका क्षेत्र दिनपर-दिन संकुचित होता जाता है। दुनियाका बँटवारा हो गया है । उपनिवेशोमे भी व्यवसायकी उन्नति होती जाती है। इससे ससारका बाजार इन प्रौद्योगिक राष्ट्रोके लिए संकुचित होता जाता है। इसलिए जवतक इन राष्ट्रोकी स्पर्धा पूर्णरूपसे जारी रहती है, तवतक व्यवसायमें मुनाफेपर पूंजी लगानेके लिए अवसर कम होते जाते है । यह अवस्था तभी सुधर सकती है, जव एक नये अाधारपर प्रमुख पूंजीवादी राष्ट्र ससारके व्यवसाय और वाजारका बँटवारा कर ले। किन्तु पूंजीप्रथामे यह सम्भव नही है । अवस्था इसके सर्वथा प्रतिकूल है । संसारका व्यापार जितनाही अधिक सिकुडता है, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध जितने ही अधिक अव्यवस्थित होते है, उतना ही अधिक विविध राष्ट्र एक आर्थिक युद्धके लिए अपनेको शस्त्रोसे सुसज्जित करते जाते है । प्रत्येक राष्ट्र अपने आर्थिक जीवनको रक्षाके लिए तैयारी कर रहा है । प्रत्येक राष्ट्र अपनेको अात्मनिर्भर करना चाहता है । वह नये बाजार और नये प्रदेशकी तलाशमे है । वह अपने देशसे दूसरोके व्यवसायको निकालना चाहता है । जिन क्षेत्रोमे वह स्वय पिछड़ा हुआ है उनमे वह उन्नति करना चाहता है । इससे राष्ट्रीयताको भावनाको उत्तेजना मिलती है । पूंजीप्रथाकी वर्तमान आवश्यकताओंके कारण इस भावनाको उत्तेजना देनेकी जरूरत है। किन्तु यदि प्रत्येक राष्ट्र इस नीतिका अनुसरण करे तो अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था और अस्तव्यस्तता और भी बढ जावेगी।
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