मेरे संस्मरण ४४५ कई कोमल स्मृतियाँ है । यहाँ केवल एक वातका उल्लेख करता हूँ। हमलोग अहमदनगर- के किलेमे एक साथ थे । एकवार टहलते हुए कुछ पुरानी बातोकी चर्चा चल पड़ी। उन्होने कहा-'नरेन्द्र देव । यदि मै काग्रेसके आन्दोलनमे न आता और उसके लिए कई वार जेलकी यात्रा न करता तो मैं इन्सान न बनता ।' उनकी वहन कृष्णाने अपनी पुस्तकमें जवाहरलालजीका एक पत्र उद्धृत किया है जिससे उनके व्यक्तित्वपर प्रकाश पडता है । पं० मोतीलालजीकी मृत्युके पश्चात् उन्होने अपनी बहनोको लिखा कि पिताको सम्पत्ति मेरी नहीं है, मै तो सवके लिए उसका ट्रस्टीमात्र हूँ। उस पत्रको पढकर मेरी आँखोमे आँसू आ गये और मैने जवाहरलालजीकी महानताको समझा । उनको अपने साथियोका बड़ा ख्याल रहता है और बीमार साथियोकी वडी शुश्रूषा करते है । महात्माजीके आश्रममें चार महीने रहनेका मौका मुझे सन् १९४२ मे मिला। मैंने देखा कि वे कैसे अपने प्रत्येक क्षणका उपयोग करते है । वह रोज आश्रमके प्रत्येक रोगीकी पूछताछ करते । प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यकर्ताका ख्याल रखते थे। आश्रमवासी अपनी छोटी-छोटी समस्यायोको लेकर उनके पास जाते थे और वह सवका समाधान करते थे। आश्रममे रोग-शय्यापर पडे-पडे में विचार करता था कि वह पृरुप जो आजके हिन्दूधर्मके किसी नियमको नही मानता, वह क्यो असख्य सनातनी हिन्दुओका आराध्य देवता बना हुआ है। पण्डित-समाज चाहे उनका भले ही विरोध करे, किन्तु अपढ़ जनता उनकी पूजा करती है। इस रहस्यको हम तभी समझ सकते है, जब हम जाने कि भारतीय जनतापर श्रमण-संस्कृतिका कही अधिक प्रभाव पड़ा है । जो व्यक्ति घर-बार छोड़कर निस्वार्थ सेवा करता है, उसके आचारकी अोर हिन्दू-जनता ध्यान नही देती। पण्डित-जन भले ही उसकी निन्दा करे, किन्तु सामान्य जनता उसका सदा सम्मान करती है । अक्टूबर सन् १९४१ मे जव मै जेलसे छूटा तव महात्माजीने मेरे स्वास्थ्यके सम्वन्धमे मुझसे पूछा और प्राकृतिक चिकित्साके लिए आश्रममे बुलाया । मै महात्माजीपर बोझ नही डालना चाहता था । इसलिए कुछ वहाना कर दिया । पर जब मै ए० आई० सी० सी० की बैठकमे शरीक होने वर्धा गया और वहाँ वीमार पड गया, तव उन्होने रहनेके लिए आग्रह किया । मेरी चिकित्सा होने लगी। महात्माजी मेरी वडी फिक्र रखते थे । एक रात मेरी तबीयत बहुत खराव हो गयी । जो चिकित्सक नियुक्त थे वह घबरा गये, यद्यपि इसके लिए कोई कारण न था। रातको १ वजे विना मुझे बताये महात्माजी जगाये गये और वह मुझे देखने आये। वह उनका मौनका दिन था। उन्होने मेरे लिए मौन तोड़ा। उसी समय मोटर भेजकर वर्धासे डाक्टर वलाये गये । सुवहतक तवीयत संभल गयी थी। दिल्लीमे स्टैफर्ड क्रिप्स वार्तालापके लिए पाये थे। महात्माजी दिल्ली जाना नहीं चाहते थे, किन्तु अाग्रह होनेपर गये । जानेके पहले मुझसे कहा कि वह हिन्दुस्तानके बँटवारेका सवाल किसी-न-किसी रूपमे लेंगे। इसलिए उनकी दिल्ली जानेकी इच्छा न थी। दिल्लीसे वरावर फोनसे मेरी तबीयतका हाल पूछ करते थे। वा भी उस समय वीमार थी। इस कारण वह जल्दी लौट आये । जिनके विचार उनसे नहीं मिलते थे, यदि वह
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