राष्ट्रीयता और समाजवाद 7 व्याख्यान हुए। इस तरह समय-समयपर किसी-न-किसी दलके नेता प्रयाग आते रहते थे। लाला लाजपतराय और हैदररजा भी आये । नरम दलके नेतायोमे केवल श्री गोखलेका कुछ प्रभाव हम विद्यार्थियोपर पड़ा । हमलोगोने स्वदेशीका व्रत लिया और गरम दलके अखवार मँगाने लगे। कलकत्तेसे दैनिक 'वन्दे मातरम्' पाता था, जिसे हम बड़े चावसे पढा करते थे। इसके लेख बड़े प्रभावशाली होते थे। श्री अरविन्द घोष इसमे प्राय. लिखा करते थे। उनके लेखोने मुझे विशेष रूपसे प्रभावित किया । शायद ही उनका कोई लेख होगा जो मैने न पढा हो और जिसे दूसरोको न पढाया हो । पाण्डिचेरी जानेके बाद भी उनका प्रभाव कायम रहा और मैं 'पार्य' का वो ग्राहक रहा । बहुत दिनो- तक यह आशा थी कि वह साधना पूर्ण करके बङ्गाल लौटेगे और राजनीतिमे पुनः प्रवेश करेगे । सन् १९२१ मे उनसे ऐसी प्रार्थना भी की गयी थी। किन्तु उन्होने अपने भाई वारीन्द्रको लिखा कि सन् १९०८के अरविन्दको बङ्गाल चाहता है । किन्तु मैं सन् १९०८ का अरविन्द नही रहा । यदि मेरे ढङ्गके ६६ भी कर्मी तैयार हो जाये तो मैं पा सकता हूँ। वहुत दिनोतक मुझे यह आशा बनी रही, किन्तु अन्तमे जब मैं निराश हो गया तो उधरसे मुंह मोड़ लिया। उनके विचारोमें प्रोजके साथ-साथ सच्चाई थी। प्राचीन सस्कृतिके भक्त होनेके कारण भी उनके लेख मुझे विशेष रूपसे पसन्द आते थे । उनका जीवन बड़ा सादा था। जिन्होने, अपनी पत्नीको लिखे उनके पन्न पढे है, वह इसको जानते है । उनके सादे जीवनने मुझको बहुत प्रभावित किया । उस समय लाला हरदयाल अपनी छात्रवृत्ति छोड़कर विलायतसे लौट आये थे। उन्होंने सरकारी विद्यालयोमे दी जाने- वाली शिक्षा-प्रणालीका विरोध किया था और 'हमारी शिक्षासमस्या' पर १४ लेख पंजावीमे लिखे थे। उनके प्रभावमे आकर पजावके कुछ विद्यार्थियोने पढना छोड़ दिया था । उनके पढ़ानेका भार उन्होने स्वय लिया था। ऐसे विद्यार्थियोकी सख्या वहुत थोड़ी थी। हरदयालजी बड़े प्रतिभाशाली थे और उनका विचार था कि कोई बड़ा काम विना कठोर साधनाके नही होता । Edwin Arnold की 'Light of Asia' को पढकर वह विल्कुल वदल गये थे। विलायतमे श्री श्यामजी कृष्ण वर्माका उनपर प्रभाव पड़ा था। उन्होने विद्यार्थियोके लिए दो पाठ्यक्रम तैयार किये थे । इन सूचियोकी पुस्तकोको पढ़ना मैने प्रारम्भ किया। उग्र विचारके विद्यार्थी उस समय रूस-जापान युद्ध, गैरीवाल्डी और मैजिनीपर पुस्तके और रूसके आतकवादियोके उपन्यास पढा करते थे । सन् १९०७ मे प्रयागमे रामानन्द वावूका "Modern Review" भी निकलने लगा। इसका बड़ा आदर था। उस समय हमलोग प्रत्येक बगाली नवयुवकको क्रान्तिकारी समझते थे। बँगला साहित्यमें इस कारण और भी रुचि उत्पन्न हो गयी। मैंने रमेणचन्द्र दत्त और वंकिमके उपन्यास पढे और बँगला-साहित्य थोड़ा-बहुत समझने लगा । स्वदेशीके व्रतमे हम पूरे उतरे । उस समय हम कोई भी विदेशी वस्तु नही खरीदते थे । माघ-मेलाके अवसरपर हम स्वदेशीपर व्याख्यान भी दिया करते थे। उस समय म्योर कालेजके प्रिंसपिल जेनिंग्स साहव थे। वह कट्टर एंग्लो-इण्डियन थे। हमारे छात्रावासमे एक विद्यार्थीके कमरेमे खुदीराम बोसकी तसवीर थी। किसीने प्रिसिपलको इसकी सूचना
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