४३६ राष्ट्रीयता और समाजवाद थे। मेरे प्रथम गुरु थे पण्डित कालीदीन अवस्थी । वह हम भाई-बहनोको हिन्दी, गणित और भूगोल पढाया करते थे। पिताजी मुझसे विशेप रूपसे स्नेह करते थे। वह भी मुझे नित्य प्राध घण्टा पढाया करते थे। मैं उनके साथ प्रायः कचहरी जाया करता था। मुझे याद है कि वह मुझे अपने साथ एक बार दिल्ली ले गये थे। वहाँ भारतधर्म-महामण्डलका अधिवेशन हुआ था। उस अवसरपर पण्डित दीनदयालु शर्माका भाषण सुननेको मिला था। उस समय उसके मूल्यको आँकनेकी मुझमे वुद्धि न थी। केवल इतना याद है कि शर्माजीकी उस समय वडी प्रसिद्धि थी। मैंने घरपर तुलसीकृत रामायण और समग्र हिन्दी महाभारत पढा । इनके अतिरिक्त वैताल पच्चीसी, सिंहासन, बत्तीसी, सूरसागर अादि पुस्तकें भी पढी । उस समय चन्द्रकान्ताकी बड़ी शोहरत थी। मैने इस उपन्यासको १६ वार पढा होगा। चन्द्रकान्ता सन्ततिको जो २४ भागमे है, एक बार पढा था। न मालूम कितने लोगोने चन्द्रकान्ता पढने के लिए हिन्दी सीखी होगी। उस समय कदाचित् इन्ही पुस्तकोका पठन- पाठन हुआ करता था । १० वर्षकी आयुमे मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हुग्रा । पिताजीके साथ नित्य मैं सन्ध्या-वन्दन और भगवद्गीताका पाठ करता था। एक महाराष्ट्र ब्राह्मण मुझको स्वसर वेदपाठ सिखाते थे और मुझको एक समय रुद्री और सम्पूर्ण गीता कण्ठस्थ थी। मैंने अमरकोश और लघुकौमुदी भी पढी थी। जब मैं १० वर्षका था अर्थात् १८६६ मे लखनऊमें काग्रेसका. अधिवेशन हुआ था। पिताजी डेलीगेट थे। मैं भी उनके साथ गया था। उस समय डेलिगेटका 'वैज' होता था कपडेका फूल । मैंने भी दरजीसे वैसा ही एक फूल बनवा लिया और उसको लगाकर अपने चचाजाद भाईके साथ 'विजिटर्स गैलरी' में जा बैठा। उस जमानेमे भापण अंग्रेजीमे होते थे और यदि हिन्दीमे होते तव भी मै कुछ ज्यादा न समझ सकता । ऐसी अवस्थामे सिवाय शोर-गुल मचानेके मैं कर ही क्या सकता था। दर्शकोने तंग आकर मुझे डॉटा और पण्डालसे भागकर मैं बाहर चला आया। उस समय मै काग्रेसके महत्त्वको क्या समझ सकता था। किन्तु इतना मैं जान सका कि लोकमान्य तिलक, श्री रमेशचन्द्र दत्त और जस्टिस रानाडे देशके वड़े नेताअोमे से है। इनका दर्शन मैंने प्रथम वार वही किया । रानाडे महाशयकी तो सन् १९०१ में मृत्यु हो गयी । दत्त महाशयका दर्शन दोवारा सन् १९०६ में कलकत्ता काग्रेसके अवसरपर हुआ। मै सन् १६०२ मे स्कूलमे भरती हुा । सन् १९०४ या १६०५ मे मैंने थोड़ी वंगला सीखी और मेरे अध्यापक मुझको कृत्तिवासकी रामायण सुनाया करते थे। पिताजीका मेरे जीवनपर वड़ा गहरा असर पड़ा। उनकी सदा शिक्षा थी कि नौकरोके साथ अच्छा व्यवहार किया करो, उनको गाली-गलौज न दो। मैंने इस शिक्षाका सदा पालन किया। विद्यार्थियोमे सिगरेट पीनेकी बुरी प्रथा उस समय भी थी। एक बार मुझे याद है कि अयोध्यामे कोई मेला था। मैने गौकिया सिगरेटकी एक डिबिया खरीदी । सिगरेट जलाकर जो पहला कश खीचा तो सर घूमने लगा। इलायची, पान खानेपर तबीयत संभली । मुझे आश्चर्य हुआ कि लोग क्यो सिगरेट पीते है । मैने उस दिन से आजतक
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