४१८ राष्ट्रीयता और समाजवाद है कि इन स्वयंसेवकोंको फौजी शिक्षा दी जाती थी। फिलिस्तीनके अरव संगठन भी वालचर-सस्था होनेका बहाना करते है पर वास्तविकता हमसे छिपी नही है। आज जब साम्प्रदायिक विद्वेष इतना वढ गया है तब साम्प्रदायिक आधारपर किसी प्रकारका फौजी सगठन होने देना बडा खतरनाक है। हम समझते है कि नेशनल गार्ड बनानेकी प्रेरणा लीगको फिलिस्तीनसे मिली है । हिटलरका उदाहरण भी उसके सामने रहा है । फासिस्ट नीतिके अनुसरणका यही परिणाम है, किन्तु यह नीति देशके लिए कितनी घातक है यह हमारे मुसलमान नवयुवक नही समझते । उन्हे समझना चाहिये कि अंग्रेजोकी गुलामी एक बहुत बडा अभिशाप है, जिससे छुटकारा पाना हिन्दुअोसे लडनेतथा पाकिस्तान- की मांग करनेकी अपेक्षा कही ज्यादा जरूरी है । फिलिस्तीनके नवयुवक इस बातको समझने लगे है कि यहूदियोकी अपेक्षा अग्रेजी राज उनका कही वड़ा दुश्मन है । काश कि हमारे मुसलिम नवयुवक भी ऐसा समझते । ईराकके राजनीतिक दल और उनकी स्थिति गत महायुद्धमे ईराकके शासनने जनताकी राजनीतिक प्रवृत्तिपर नियन्त्रण लगा दिया था। किन्तु लोकतन्त्रकी सर्वत्र चर्चा होनेके कारण तथा मित्रराष्ट्रोकी विविध घोषणाअोके फलस्वरूप जनताकी, विशेषकर नवयुवकोकी, राजनीतिक चेतनामे असाधारण वृद्धि हुई थी। युद्धके समाप्त होनेपर इंगलैण्डमे साधारण चुनाव हुआ और इसमे मजदूर दलकी विजय हुई। इस विजयसे ईराककी जनताको प्रेरणा मिली और उसको अपने भविष्यके सम्बन्धमें आशा बँधी । किन्तु ईराकको हकमतने जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता प्रदान करनेके लिए कोई कदम नहीं उठाया । जब कि जनता निराश हो रही थी अकस्मात् 'रिजेण्ट अब्दुल इलाहने गत वर्ष यह घोषित किया कि यदि षड्यन्त्रोको रोकना है तो लोकतन्त्रात्मक शासनकी स्थापना करनी होगी। इस घोषणाको कार्यान्वित करनेके लिए रिजेण्टने सर्वसाधारणको राजनीतिक दलोमे संगठित करनेकी स्वतन्त्रता प्रदान की और इस बातका आश्वासन दिया कि इस कार्यमें राज्यकी ओरसे कोई वाधा नही उपस्थित की जायगी। रिजेण्टने अपना यह मन्तव्य भी प्रकाशित किया कि उनकी इच्छा है कि गवर्नमेण्ट- का जल्द-से-जल्द चुनाव हो जिसमे आर्थिक सुधार किये जा सके और सामाजिक न्याय हो सके । जिस समय यह घोषणा हुई थी उस समय ऐजरबैजाँमे विद्रोह हो रहा था। बहुतसे लोगोको ऐसा सन्देह था कि ईराककी जनताक़ी बढ़ती हुई बेचैनीको रोकनेके लिए ही यह चाल चली गयी थी। शीघ्र ही इस सन्देहकी पुष्टि हुई, क्योकि गवर्नमेण्टकी अोरसे युद्ध कालीन असाधारण कानून रद्द नही किये गये, राजनीतिक दलोपर लगायी गयी रोक वैसी ही कायम रही और गवर्नमेण्टका नया चुनाव भी नही हुआ । यह अवस्था ऐजरबैजाँ के विद्रोहके समाप्त होनेके ६ महीने बादतक कायम रही। १. 'जनवाणी' फरवरी, सन् १९४७ ई०
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