फिलिस्तीन और भारत ४१७ यह सूचित करता हो कि वह व्यक्ति किसी राजनीतिक या सामाजिक संगठनका सदस्य है । किन्तु इन संगठनोके नवयुवक एक राजनीतिक संस्थाके सदस्य है और जो वर्दी यह धारण करते है वह अमेरिकनोकी वर्दी है । आश्चर्य है कि इनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नही की जाती । एक अधिकारीने प्रेस कान्फरेन्समे कहा था कि हाई कमिश्नर इस कानूनको अभी लागू नही करना चाहते । अधिकारियोके इस आचरणसे अनेक प्रकारके सन्देह होते है । समझदार लोगोका ख्याल है कि इन सगठनोको कानूनकी अवहेलना इसलिए करने दिया जाता है, क्योकि फिलिस्तीनके आधिकारी चाहते है कि अरब-यहूदियोका झगड़ा चलता रहे और अरवोमे सार्वजनिक आन्दोलन वामपक्षी न होने पावे । इस सन्देहकी पुष्टि एक और बातसे भी होती है । 'फतवा' नामक संगठनका अध्यक्ष पहले सी० आई० डी० का इन्स्पेक्टर था और उसका पिता पुलिसका कर्मचारी है। मुफ्तीका भतीजा, जमाल हुसैनी, जो हालमे यहूदियोद्वारा मार डाला गया है, 'फतवा' का सस्थापक था । युद्धकालमे वह रोडीशियामे नजरवन्द था और जवसे वह वापिस आया, निरन्तर यहूदियोका विरोध करता रहा और ब्रिटिश नीतिका विरोध करना उसने एक प्रकारसे छोड दिया था। यह काफी सन्देह उत्पन्न करनेवाली बात थी और राष्ट्रीय नवयुवक उसके सम्बन्धमे यह धारणा बनाने लग गये थे कि वह यहूदियोके विरुद्ध अग्रेजोसे मित्रता करना चाहता था। स्वयं मुफ्तीके सम्बन्धमे इस प्रकारका सन्देह किया जाने लगा है और अबके जिम्मेदार अरवोका यह विश्वास है कि चूंकि मुफ्ती सोवियत रूसका विरोधी है, अग्रेज एक दिन सोवियत विरोधी अरव नेताके रूपमे उसका स्वागत करेगे । इस सम्बन्धमे यह बताया ‘जाता है कि फिलिस्तीनके पोलिटिकल इण्टेलिजेन्स विभागके अफसर पेरिससे मिस्र या लेवनन, मुफ्तीको भगा लाना चाहते थे और यह भी ध्यान देनेकी बात है कि जब मुफ्ती सिकन्दरियामे थे तब उन्होने केवल टाइम्स पत्रके मध्यपूर्वस्थित सम्वाददातासे मुलाकात की थी। इन सब बातोके अाधारपर कहा जाता है कि मुफ्तीका अग्रेजोके साथ समझौता हो गया है । पता नही इसमे कहाँतक असलियत है । किन्तु एक वात निर्विवाद है कि अंग्रेज इन फौजी सगठनोके विरुद्ध कार्यवाही न करके अरव-यहूदी झगड़ोको उत्तेजना देना चाहते है । यह नीति ऐसी खुली है कि शकाका कोई स्थल नही है। यह भी सत्य है कि साम्प्रदायिक झगड़ोको उत्तेजना देनेसे सार्वजनिक आन्दोलनका रूप बदलने लगता है तथा क्रान्तिकारी चेतना और भावनाकी वृद्धि नहीं हो पाती। इससे प्रगतिशील शक्तियो- की गति अवरुद्ध हो जाती है, जो नि सन्देह अधिकारियोके लिए लाभकारी है। फिलिस्तीनका उदाहरण बताता है कि कुछ ऐसी ही वात हमारे देशमें भी हो रही है । सन् १९३६ मे हमारे प्रान्तमे खाकसारोकी वर्दी पहनकर और वेलचा लेकर आम सडकोपर कवायद करनेसे रोका नही जाता था, जब कि काग्रेसके स्वयसेवकोके विरुद्ध ऐसा ही काम करनेपर कानूनी कार्यवाही की जाती थी, हम यह देख चुके है । आज जो हिन्दू-मुसलिम दगे बड़े पैमानेपर हो रहे है इसमे विदेशियोका छिपा हाथ हो तो हमको आश्चर्य न होगा। मुसलिम लीगकी नीतिको देखते हुए यही कहना होगा कि उनका नेशनलगार्ड महज सामान्य स्वयंसेवकोकी जमात नही है, उनके कार्यालयमे 'हेल्मट' का पाया जाना इस बात का प्रमाण २७
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