३६२ राष्ट्रीयता और समाजवाद विश्वास और परम्परागत ऐहिक और पारलौकिक मूल्योका खोखलापन और उनकी निस्सारता जनतापर प्रकट होती जाती है । आधुनिक युगकी वेचनीका यही कारण है । क्रान्तिके युगमे ऐसा सदा होता है । मौलिक परिवर्तनके लिए किये गये उद्योगके साथ- साथ सघर्प, विरोध, समाजका वैकल्य और उसकी विशीर्णता भी होती है । गम्भीर शक्तियाँ काम कर रही है और उन्हीके कारण यह संघर्प और विरोध होता है। किन्तु लोग इन गम्भीर कारणोंकी खोज नहीं करते । वह कुछ व्यक्ति विणेपको ही दोपी व्हराते है । ये व्यक्तिविणेप उन शक्तियोके केवल तात्कालिक प्रतीक है । अतः इनको भला-बुरा कहनेसे कुछ लाभ नहीं और न यह विचार ही यथार्थ है कि इन व्यक्तियोंके न होनेपर विरोध शान्त हो जायेगा । अतः प्रश्न यह है कि हम यह तथ्य समझते है या नहीं कि वर्तमान युगमे समाजके जो पुरुपार्य है वह अब सबको समानरूपसे स्वीकृत नहीं है । ऐसी दशामे यदि समझनेसे काम न लिया गया और जनताको यह विश्वास न दिलाया गया कि उसके साथ सामाजिक न्याय होगा तो समाजमें विप्लव होगा। समाजके उत्पादनके सम्बन्ध उत्पादनकी शक्तियोके विरोधमे हैं । भविष्यमे समाज- को, यदि वह आन्तरिक क्रान्तिमे बचना चाहता है तो यह तय करना होगा कि समताकी परिधिमे ही स्वतन्त्रताका अन्वेषण किया जा सकता है। समयसे यदि व्यवस्थित लोकसत्ताकी बुनियादें नहीं डाली गयी तो यह कार्य सम्पन्न न हो सकेगा। फासिज्मका उत्थान और प्रसार ही दिखाता है कि मानव-इतिहासका एक युग समाप्त हो रहा है । यूरोपीय सभ्यतापर उसके प्रभुत्वका स्थापित होना ही इस वातका प्रमाण है कि यूरोपकी बुनियादोमे कोई घातक दुर्बलता है । यूरोपका शासकवर्ग खेद है कि यूरोपका शासकवर्ग इस रिक्त-स्थानके वाद भी इस सत्यको नही पहचान पा रहा है । वह अब भी पूंजीवादी प्रथासे चिपका हुआ है और युगवर्मको पहचानकर अपनी गतिविधिको बदलनेको तैयार नहीं है । लोकतन्त्रकी दुहाई देनेवाले ये पूंजीपति भी उसी समयतक लोकतन्त्रके भक्त है जवतक लोकतन्त्र उनके विशेपाधिकारोंको संशयमे नही डालता । ये सोच भी नहीं सकते कि कोई दूसरा भी कानून, कोई दूसरे प्रकारके अधिकार और अन्य सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्य हो सकते हैं । उनकी यह मूढ़ता सर्वनाशका कारण है। हिटलरकी सत्ताका अन्त करके भी यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि फासिज्म- के वीजया विनाश हो गया है । जवतक फासिज्मके मूल कारणका उन्मूलन नही होता तवतंक इसके वार-बार उदय होनेकी आशंका बनी रहती है । फासिज्मका सफल विरोध करनेका एकमात्र उपाय वह विश्वास है जो उस विभीपिकाका अतिक्रमण कर सकता है जिसे फासिज्म दिजितोपर लादता है। इस विश्वासकी जडे पूंजीवादी लोकसत्ताकी जड़ोंसे ज्यादा गहरी होनी चाहिये । पूँजीवादी लोकतन्त्रके विशीर्ण होनेपर ही फासिज्म अधिकारारूढ़ हुया । अतः एक ऐसी नवीन आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाके कायम
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