३६० राष्ट्रीयता और समाजवाद और भरोसा जाता रहता है, जब उसको अपना भप्यि संकटमय दीख पड़ता है, जव श्रम और बुद्धि दोनोका पुरस्कार लोगोको नही मिलता और वेकारी वढती है तथा जनतामे निराशा और विरोधके भाव प्रादुर्भूत होते है, तब समझिये कि पुरानी सभ्यताका 'रोजे हिसाब' आ गया है । जव जनता सजग होकर विद्रोहके लिए उठ खड़ी होती है, तव सभ्यता- को या तो जनतासे समझौता करना पड़ता है या वह उससे लड़नेको तैयार हो जाती है । इस संघर्पका परिणाम अनिश्चित होता है। पूंजीवादका ह्रास यह पूंजीवादके ह्रासका युग है । इस युगमे समाजके बहुत थोड़े लोगोंको ही अपने व्यक्तित्वके पूर्ण विकासके लिए अवकाश मिलता है, प्रायः लोग अपनी व्यर्थताका ही अनुभव करते है । उनका व्यक्तित्व क्षत-विक्षत, विशीर्ण और विकल होता है । पूंजीवाद सम्पत्तिके अधिकारोकी रक्षा करता है। व्यक्तियोके अधिकारोकी रक्षा करनेमे यह समर्थ नही है। हकीकत यह है कि पूंजीवाद आर्थिक क्षेत्रमे जनताको बाजारके नियमोके अधीन कर देता है और उन ऐहिक और आध्यात्मिक मूल्यो ( values ) के अधीन कर देता है जो पूंजीवादी सत्ताके स्वभावके अनुकूल है । और जीवनके ये मूल्य जनताके निजके अनुभवोको अभिव्यक्त नहीं करते । ये मूल्य भूमि और यन्त्रोके उन स्वामियोके अनुभवको अभिव्यक्त करते है जो पूंजीवादी समाजपर प्रभुत्व रखते है । अत. जनता व्यक्ति रूपसे अपनी तुच्छताका अनुभव करती है। जिन संस्थानोका वह उपकरणमात्र है उनका विरोध किये विना वह अपने व्यक्तित्वको सिद्ध नही कर सकती। जनताका वह पुराना विश्वास कि उसके साथ सामाजिक न्याय हो रहा है, लुप्त होता जाता है और इसी कारण एक व्यवस्थित समाजका संचालन दुप्कर होता जाता है। जनता सजग हो गयी है। वह अपने अधिकारोको पहचान गयी है और सगठित हो रही है । टाकविल ( Tocque- ville ) ने ठीक कहा है :- "ग्रारम्भमे जनताने प्रत्येक राजनीतिक संस्थाको बदलकर अपनी अवस्थाको उन्नत करनेकी चेष्टा की, किन्तु प्रत्येक परिवर्तनके बाद उसने पाया कि उसकी स्थितिमे कोई परिवर्तन नही हुआ है या परिवर्तनकी गति इतनी मन्द है कि उससे उसको सन्तोप नहीं है । अन्तमे यह सत्य उसपर एक-न-एक दिन प्रकट होगा कि जिसने उसकी अवस्थाको अपरिवर्तन शील, जड और स्थिर बना दिया है, वह राज्यका शासन-विधान नहीं है, किन्तु इसकी जिम्मेदारी समाजके अटल नियमोपर है। अत: यह स्वाभाविक है कि जनता एक-न-एक दिन स्वत यह प्रश्न करेगी कि क्या उसको उन नियमोके वदलनेका अधिकार और सामर्थ्य नही है ?" जनताका जागरण टाकविलने स्पष्ट देखा कि व्यक्तिगत सम्पत्तिकी पद्धति मानव समतामे बाधा उत्पन्न करती है। हमारी वर्तमान आर्थिक और राजनीतिक पद्धतिके द्वारा एक गुट या समुदायके हित ही सुरक्षित रहते है, क्योकि वह वैयक्तिक स्वामित्वको एक पवित्र 1
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