३६४ राष्ट्रीयता और समाजवाद युद्धमे 'तटस्थ रहकर उसकी विभीपिकाग्रोसे अपने देशकी रक्षा करे तो हमे तटस्थ राष्ट्रोके एक तृतीय शिविरका निर्माण करना होगा । हम कमसे कम दक्षिण-पूर्वीय एशियाके नव स्वतन्त्रता-प्राप्त राष्ट्रो तथा स्वतन्त्रता-प्राप्तिके लिए युद्धरत राष्ट्रोका तीसरा शिविर स्थापित कर सकते है। किन्तु दूसरे राष्ट्रोको हम अपने साथ तभी ला सकते है जव कि हम घरेलू झगडेमे फँसकर अपनी समस्त शक्ति उसीमे नष्ट न कर दें, जब हम अपनी दृष्टिको उदार बनावे । यदि भारत प्रतिशोधकी भावनासे ऊपर न उठ सका, यदि उसने आर्थिक क्षेत्रमे ऐसी प्रगतिशील नीति न अपनायी जिसके द्वारा वह अपने उत्पादन सकट अादिके प्रश्नोको हल करनेके साथ अपनेको सुदृढ बनानेमे समर्थ हो और अपने पडोसी राष्ट्रोको भी महायुद्धमे तटस्थ रहनेके लिए तैयार न कर सका, तो हमारा भविष्य बहुत अन्धकारमय सिद्ध हो सकता है । प्रगतिशील साहित्यिकोको देशको इस विपत्तिकी पूर्व सूचना देनी है । साहित्यिक अपने कर्तव्यका तभी निर्वाह कर सकता है जब कि वह जीवनका गहराईसे अध्ययन करे, वह समाजकी जीवनसरितामे ऊपरी तलपर संचारित होनेवाली प्रवृत्तियोतक ही अपनी दृष्टिको सीमित न रखे, अन्तःसलिला सरस्वती- की भाँति नीचे रहकर प्रच्छन्न रूपसे कार्य करनेवाली शक्तियोका भी अध्ययन करे । यह अध्ययन जन-जीवनसे अलग रहकर नहीं किया जा सकता; प्रगतिशील साहित्यिकको जीवनकी समस्याग्रोका अध्ययन करना होगा, अपनी रचनायोमे उसे समाजके वर्तमान रूपका चित्रण करना होगा, जनताकी मूक अभिलापागोको वाणी देनी होगी, इतिहासका अध्ययन करके उसकी जीवन-प्रदायिनी शक्तियोका समर्थन करते हुए जनताका मार्ग- प्रदर्शन करना होगा । साहित्यक अपनेको जनताका पथ-प्रदर्शन करने योग्य तभी वना सकता है, जब कि वह अपनेको जीवन-संघर्षसे सर्वथा पृथक् न रखे ,उसमे जनसाधारणके साथ अपना तादात्म्य स्थापित करनेकी क्षमता हो, वह इतिहासका वैज्ञानिक अध्ययन करके उसके विकासकी दिशाको पहचाननेमे समर्थ हो, उसकी जीवन-दृष्टि सही हो। इतने गुणोके अभावमे कितने ही कलाकार, जो प्रथम महायुद्धके उपरान्त प्रगतिशील साहित्यिकोके शिविरमे प्रविष्ट हुए थे, आज दिशाभ्रमित होकर भटक रहे है । युद्धकालमें तथा उसके पश्चात् पुरानी मान्यताप्रोको भंग होता देखकर वे अवसाद, खिन्नता और विचार कुण्ठाको प्राप्त हो रहे है । स्वस्थ जीवन-दृप्टिकोणके अभावमे वे पलायनवादका सहारा ले रहे है । कोई रोमन कैथलिक दर्शनकी शरण ले रहा है, कोई भारतीय योगके प्रति आकर्पित हो रहा है । कितने ही किंकर्तव्यविमूढ होकर केवल नैराश्य भावनाको व्यक्त कर रहे है । कारण-कार्यकी शृङ्खला और सामाजिक सम्बन्धोकी ठीक धारणा न होनेके कारण कितने ही कलाकार विज्ञानको ही वर्तमान सास्कृतिक पतनके लिए उत्तरदायी मान वैठे है । जीवन-सघर्पसे भागनेवाले कलाकार आकस्मिक कारणोसे भले ही प्रगतिशीलोकी कोटिमे आ जायँ, किन्तु उनकी प्रगतिशीलता क्षणिक ही होगी। जीवन-संघर्षसे पृथक् रहकर सच्चे और प्रगतिशील साहित्यकी सृष्टि सम्भव नही है । किन्तु इस कथनका यह तात्पर्य कदापि नही कि कलाकारके लिए राजनीतिक संघर्पमे लिप्त होना आवश्यक है । संघर्पके इतने निकट रहना कि वह उसका निरीक्षण कर सके, उसके लिए आवश्यक है ।
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