अध्यापकोका कर्तव्य ३५१ ताकि उनकी पिछडी स्थितिका यथासम्भव शीघ्र ही निराकरण हो जाय । स्वतन्त्रता और समानताकी भावनाके साथ-साथ एकताको भावनाका भी प्रादुर्भाव होता है, और कोई कारण नही है कि जिन बातोने अाज हमे एक दूसरेसे अलग कर रखा है उन्हे हटा देनेपर हम विभाजक वृत्तियोको कावूमे न रख सके । अव हम सक्षेपमे उन दो-एक बातोका विचार करेगे जिनका सम्बन्ध विश्वविद्यालयको शिक्षासे है । यह युग ही विज्ञान और विशिष्ट विषयोके विशिष्ट अध्ययनका है । वैज्ञानिक साधनोके उपयोगद्वारा आज हमारी समस्यायोमेसे अनेकोका समाधान हो सकता है । उदाहरणके लिए आप हमारी गरीवी, रोग, निरक्षरता, कृषि और उद्योग-धन्धोके वैज्ञानिक आधारपर सगठनकी समस्याग्रोको ले सकते है। विज्ञानके द्वारा प्राकृतिक शक्तियोका उपयोग समाजके हितके लिए किया जा सकता है और विज्ञान हमे युक्तियुक्त विचार करना भी सिखाता है । मनुप्यकी सहज प्रवृत्तियाँ उसकी बुद्धिको दवा रखती है, अत इस ठीक रास्तेपर चलनेका अभ्यास करा देनेसे हम उन्हें अपने वशमे रख सकते है । इस सम्बन्धमे समाज-विज्ञानका महत्त्व स्पष्ट है । यह विज्ञान अभी गैशवावस्थामे है, पर अध्ययन और अनुसन्धानके विपयके नाते इसका महत्त्व वढता जा रहा है । विज्ञान और मनोविज्ञानके नवीन सिद्धान्तोने मानव-प्रकृति तथा जगत्सम्बन्धी हमारी धारणाअोको बदल डाला है। मनुष्य और प्रकृतिके विपयमे हमारे परम्परागत ज्ञानको अपना स्थान विज्ञानको देना होगा । हमे अपनी बौद्धिक विचार-पद्धति विकसित करनी होगी और जीवनकी जनतन्त्रात्मक रीति ग्रहण करनी होगी। इस उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए आवश्यक है कि प्रारम्भसे ही हमारे पाठ्यक्रममे विज्ञानका अनिवार्य स्थान रहे और सामाजिक विज्ञानोके उच्च अध्ययनको उत्साहित कर पूर्ण प्रश्रय दिया जाय । ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि अधिकाधिक सख्यामे वैज्ञानिक पैदा हो और प्रत्येक विश्वविद्यालयमे सभी क्षेत्रोमें वैज्ञानिक शोधका समुचित प्रवन्ध हो । यह दुर्भाग्यकी बात है कि राजनीतिज्ञो एव युद्धप्रवर्तकोद्वारा विज्ञानका बहुत ही जघन्य दुरुपयोग किया जा रहा है । सकुचित राष्ट्रीय भावनाअोके कारण जो ससारव्यापी सघर्पके मूलमे है, और जो राष्ट्रीय गर्व एव पक्षपातका पृष्ठपेपण करती है, विज्ञानका उपयोग शत्रुराष्ट्रके नाश और दूसरे राष्ट्रोकी आर्थिक स्थितिको अधिकारगत करनेके लिए किया जाता है । विज्ञान उसी दशामे वरदान स्वरूप है जब वह मानवीय मान्यताप्रोके साथ सम्बद्ध रहे । यदि हमारे वैज्ञानिक समाजके प्रति अपने दायित्व समझते है तो वे हीन भावनाप्रो और प्रवृत्तियोका परित्याग कर देगे और युद्धके प्रवर्तकोके हाथो अपनेको औजारोकी भाँति जानेसे इनकार कर देगे, और विज्ञानका इस प्रकारका दुरुपयोग नहीं होने देगे । तव मनुप्यके प्राणोका मूल्य समझा जायगा और विनाशकारी साघातिक इजनोका निर्माण समाप्त हो जायगा। किन्तु यह तभी सम्भव है जव साधारण जनताको समुचित ढगकी शिक्षा दी जाय, और वह राजनीतिज्ञोकी चाले समझ सकनेके लिए पर्याप्त रूपसे ज्ञानवती एव बुद्धिसम्पन्न हो जाय और उनके द्वारा चालित होनेसे इनकार कर दे। अब सामाजिक विज्ञानोकी ओर अधिकाधिक ध्यान दिया जा रहा है, इससे यह आशा 1
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