युवकोका समाजमे स्थान और भारत । ३१५ असुविधा होती है, इसमे केवल एक अपवाद है-पण्डित जवाहरलाल । जवाहरलालजीने नयी नीतिका सूत्रपात किया था और वह सदा इस वातको अनुभव करते है कि युवकोके अधिकारको स्वीकार करना चाहिये, किन्तु कोई परम्परा नही बन पाती। यदि युवकोका अधिकार स्वीकार कर लिया जाय तो इसके कई लाभ है । पहली बात तो यह समझनेकी है कि जो आज अधिकारारूढ है उनका कर्तव्य है कि वे अपने उत्तराधिकारियोको अाजसे तैयार करें। अन्यथा इन वृद्धोके हट जानेपर उनकी जगह लेनेवाले योग्य अनुभवी व्यक्ति न मिलेगे । दूसरी बात यह है कि भारतके स्वतन्त्र होनेपर जो बड़ी जिम्मेदारी देशपर आ गयी है, उसको सहन करनेकी शक्ति कुछ वृद्धोको छोडकर अन्य वृद्धोमे नही है । पुन नूतन समाजकी रचनाका और प्रचलित सामाजिक पद्धतिको तोड़नेका युवकमे सामर्थ्य है । जो समाज नया उपक्रम करना चाहता है और जिसको क्रान्तिकारी परिवर्तनकी आवश्यकता है, उसको युवकका सहयोग अवश्य चाहिये और यह सहयोग युवकके अधिकारको स्वीकार करके ही प्राप्त हो सकता है । स्वतन्त्र राष्ट्रके विद्यार्थियोको हडताल करते हम नही सुनते । उनको इसकी आवश्यकता नहीं होती। परतन्त्र राष्ट्रके विद्यार्थी राजनीतिक आन्दोलनोमे खूब भाग लेते है । उनको समय-समयपर प्रदर्शन और हडताल करनी पडती है, राजाके अधिकारियों- के साथ सघर्प होनेसे उनको गोली भी खानी पडती है। ऐसे वातावरणमे रहनेसे उनकी एक विशेष प्रकारकी मनोवृत्ति बन जाती है । किन्तु जब राष्ट्र स्वतन्त्र हो जाता है, तब यही मनोवृत्ति हानिकारक सिद्ध होती है । राष्ट्रके सचालकोका कर्तव्य है कि बदली हुई परिस्थितिमे वे ऐसे विधानो और उपायोका अवलम्व ले जिनसे युवकोकी मनोवृत्ति वदले और वह अपनी शक्तियोका विनियोग रचनात्मक कामोमे करे । पहले तो पुराने अभ्यासको छोडना कठिन होता है और दूसरे जव समाजके नेता पुरानी वृत्तिको वदलनेका प्रयास नही करते, तब कठिनाई और बढ़ जाती है । पुरानी मनोवृत्तिको बदलनेका उपाय युवकके अधिकारको स्वीकार करना है । यदि आजकी पीढी आनेवाली पीढीकी शिक्षा-दीक्षाका भार अपने ऊपर न लेगी और उसको विकासका अवसर न देगी, तो वह इतिहासके सम्मुख दोपी ठहरायी जायेगी। राष्ट्र-निर्माणका कार्य अभी आरम्भ भी नहीं हुआ है । प्रत्येक दिशामे हमको प्रगति करनी है। शताब्दियोका रास्ता थोडे वर्पोमे तय करना है । लोकतन्त्रकी स्थापनाके लिए सार्वजनिक शिक्षाकी आवश्यकता है। इसके लिए अस्पृश्यताका निवारण और जातपातके कठोर बन्धनोको तोडना भी जरूरी है। लोकतन्त्र अभ्यासका विषय है, केवल लोकतन्त्रका पाठ पढनेसे और उसका नारा लगानेसे उसकी स्थापना नही होती । इसलिए सहयोगका प्रचार कर सामाजिक सम्बन्धोको वदलना तथा नयी आर्थिक पद्धतिको प्रतिष्ठित करना नितान्त आवश्यक है । सुन्दर भविप्यके निर्माणके लिए आज सर्वसाधारणसे त्यागकी अपील करनी है, किन्तु जबतक कोई ऐसा उद्देश्य समाजके सम्मुख नही रखा जाता जिसके लिए लोग श्रम करे, तवतक त्यागकीपाशा करना व्यर्थ है।
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