पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३२०

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मार्क्स और नियतिवाद ३०५ मार्क्स और नियतिवाद अपने मूलरूपमे नियतिवादका प्रश्न जीवस्वातन्त्र्यवादसे उत्पन्न हुअा प्रश्न था । क्या मनुष्य स्वतन्त्र कर्ता है अथवा वह अवश होकर कार्य करता है ? कर्मस्वातन्त्यवादके विरोधमे यह तर्क उपस्थित किया गया था कि यदि सर्वशक्तिमान् ईश्वरने मनुष्यकी सृष्टि उसके स्वभावकी सारी आवश्यकतानोको पूरा करके की है, तो मनुष्यको दण्ड देनेका उसको नैतिक अधिकार नही है। इसके उत्तरमे प्रतिपक्षी मानव- प्रतीति, मनुष्यके अनुभवका प्रमाण देते थे । वास्तविक जीवनमे मनुष्य जानते है कि वह विकल्पोमेंसे चुनाव करते है । वह यह भी जानते है कि मनुष्यकी सद्गति या दुर्गति होती है और प्रयोजन-विशेपके लिए वुद्धिपूर्वक यत्नशील होनेसे मौलिक सुधार भी होता है । कर्मस्वातन्त्र्यका केवल इतना अर्थ है कि मनुष्य दो विकल्पोमेसे अपनी इच्छाके अनुसार किसी एकको चुननेकी योग्यता रखता है । प्रतिपक्षका कहना है कि यदि कर्मस्वातन्त्र्य है, तो इसका अपनी परिधिमे इतना सामर्थ्य तो होना चाहिये कि वह सर्वशक्तिमान्के आशयको व्यर्थ कर दे । किन्तु उस अवस्थामे ईश्वरका सर्वशक्तिमत्त्व जाता रहेगा । चूंकि यह अचिन्त्य है और ऐसी कल्पना करना मनुष्यके लिए पाप है, अत मनुष्य स्वतन्त्र कर्ता नही है । कालविन ( Calvin ) के कट्टर अनुयायियोका भी यही मत था कि मनुष्यका वास्तविक स्वातन्त्र्य किसी अशमे भी स्वीकार करना ईश्वरके सर्वशक्तिमत्वपर आक्रमण करना होगा। इससे विश्वकी धर्मताको भी व्याघात पहुँचेगा । जीव नही समझ सकता कि ईश्वरने क्यो किसीकी नारकीय गति आरम्भसे ही निश्चित की है और दूसरोके लिए भगवत्प्रसादवश मोक्ष नियत किया है । इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि यह व्यवस्था दैवकृत है। बहुत पीछे जब अपराध करनेवालेके साथ दयाका व्यवहार करनेकी मांग पेश की गयी तव यह विवाद पुनः उठ खड़ा हुआ । सुधारकोकी ओरसे इसपर जोर दिया गया कि चूंकि अपराधीका स्वभाव और चरित्र उसकी परिस्थिति तथा शिक्षा-दीक्षापर निर्भर करता है और वह उसके लिए उत्तरदायी नहीं है, अत वदला लेनेके भावसे उसको दण्ड देना निष्ठुर और वुद्धिके प्रतिकूल है । उनका कहना है कि मनुष्य सर्वथा वशगत गुण और परिस्थितिका फल है । वह अवश और असहाय है । परिस्थिति तथा वशके अनुसार ही उसका निर्माण होता है । जिस प्रकार घडीकी सुइयाँ अवश है उसी प्रकार मनुष्य अवश है । कालविनके जिन अनुयायियोका इसके सदृश मत है उनमे और इन सुधारकोमे केवल इतना ही वैशिष्ट्य है कि जहाँ कालविनके अनुयायी मनुष्यका संचालन करनेवाली शक्तिको ईश्वर कहते है वहाँ यह सुधारक उसे प्रकृति, शिक्षा-दीक्षा या दशगत गुण या परिस्थिति कहते है । दोनो अवस्थाप्रोमे मनुष्यकी कर्तृत्वशक्ति शून्यके समान हो जाती है और वाह्यशक्ति जो सचालन करती है अनन्त हो जाती है । क्या मार्क्सको ऐसे विचारोके साथ कोई सहानुभूति थी ? उन्होने इन विचारोके .२०