२६६ राष्ट्रीयता और समाजवाद किन्तु जव जमींदारोके खिलाफ एक आधारभूत युद्ध छेड़ा जाता है तव समूचा किसान- तवका अपने वर्गके आन्तरिक विरोधोको भूलकर एक होकर इस लडाईमे भाग लेता है । ऊपर यह बतलाया गया है कि सामन्तवादी वर्गके खिलाफ किसान जो लड़ाई लड़ते है वह सामन्तशाही व्यवस्थाके खिलाफ वुनियादी लड़ाईकी सूरत तभी अस्तियार करती रही है जव पूंजीवादी वर्गके हाथोमे लड़ाईका नेतृत्व रहा है । प्रजा-सत्तात्मक क्रान्तिका कार्यक्रम जहाँ पूर्णतया किसानोके नेतृत्वमे ही चला है वहाँ व्यापारियोको सामन्तशाही जमानेके मुकावले तिजारतकी तरक्कीके लिए कुछ रियायते भले ही मिल गयी हो, लेकिन पुरानी व्यवस्थाको हटाकर नयी व्यवस्थाकी स्थापनाका कार्यक्रम नहीं पूरा किया जा सका। चीनका ताइपिग विद्रोह इसी प्रकारके युद्धका नमुना था। किसानोके नेतृत्वकी इस असफलताका कारण पूंजीवादी वर्गकी तरह उनके पास एक नयी विचारधाराका न होना था। पूंजीवादी वर्गकी प्रतिगामिता लेकिन ऐसे देशोमें जहाँ विविध ऐतिहासिक कारणोसे पूँजीवादका स्वाभाविक विकास रुक जाता है तो सम्पत्तिजीवी समुदाय क्रान्तिकारी नही रह जाता। उदाहरणार्थ हम अपने मुल्कको ही ले लें। विदेशी ब्रिटिश साम्राज्यवादने देशी पूंजीवादको पनपनेसे रोक रखा है और पूर्व प्रचलित सामन्तवादी ढाँचेको भी कायम रख छोड़ा है । स्वाभाविक अवस्थामे हमारे पूंजीपतियोंको सामन्तशाही विरोधी युद्धका नेतृत्व करना था। यह सम्पत्तिजीवी वर्गके हितमे है कि सामन्तशाही वर्गका-जमीदारो, जागीरदारो, महन्तो और राजारोका जो भी प्रभुत्व देणके आर्थिक या राजनीतिक जीवनपर है वह हटे । हमारा देश किसानोका देश है । उद्योगधन्धोद्वारा तैयार होनेवाली चीनोकी खपत यहाँ तभी हो सकती हे जव कि इन किसानोकी आमदनी वढायी जाय । किसानोकी आदमनी वढ़ानेके लिए यह जरूरी है कि कृपक जनताका जो धन जमींदारो, नवावो, महन्तो और राजाप्रोकी जेवमें चला जाता है उसे किसानोके पास ही रहने दिया जाय । हमारे किसानोकी ऋयगक्ति ( purchasing power ) प्रायः शून्यको पहुँच गयी है । विना सामन्तशाही वर्गके शोपणको खतम किये हुए किसानोकी आमदनी नहीं बढ़ायी जा सकती और फलस्वरूप उद्योगधन्धोके विकासके लिए रास्ता साफ नहीं होता । इग्लैण्ड और फ्रांसकी तरह हमारे पास ऐसे उपनिवेश भी नहीं है जहाँ हम अपने मालकी खपत कर सके । हिन्दुस्तानमे उद्योगधन्धोके विकासके लिए एक मात्र मार्ग उसकी आन्तरिक क्रयशक्तिका विस्तार करना, देशके अत्यधिक बहुमतकी अर्थात् किसानोकी आमदनी वढाना है । लेकिन फिर भी हमारे देशके पूंजीपति सामन्तवर्गको समाप्त करनेके लिए होनेवाली लड़ाईके कार्यक्रमके साथ नही है । इसके विपरीत कितने ही पूंजीपति जमीदारी प्रथाके समर्थक है । अपने प्रान्तमें ही देखते है कि पूंजीपतियोंके सेनापति सर ज्वालाप्रसाद श्रीवास्तव काश्तकारी विलके विरोधमे तालुकेदारोका साथ देनेके लिए तैयार है । उपनिवेशोंके पूंजीपति मौजूदा जमानेमें जिन स्थानोमें सम्पत्तिजीवी प्रजासत्तात्मक क्रान्ति नही हो पायी है उन औपनिवेशिक राष्ट्रोके पूंजीपतियोकी प्रतिक्रियावादिताके दो मुख्य कारण है।
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