समाजवादका मूलाधार-मानवता २८६ यह श्रम उसके लिए स्वाभाविक नही है, इसलिए उसको उसमे रस नही आता। वह श्रम कर प्रसन्न नहीं होता और न उससे उसकी शारीरिक और वौद्धिक शक्तिका स्वच्छन्द विकास ही होता है। इससे उसका स्वास्थ्य अवश्य विगडता है और उसकी आत्माका हनन होता है । इसलिए श्रमिक अपने व्यक्तित्वको अपने श्रमसे बाहर ही अनुभव करता है । ऐसा श्रम मनुष्यको प्रकृति और अपने व्यक्तित्वसे अलग कर देता है । जितना ही अधिक वह श्रम करता है उतनी ही शक्तिशाली वह दुनिया बनती जाती है जिसका कि वह निर्माण करता है और उतना ही दरिद्र और अकिञ्चन वह स्वयं और उसका आन्तरिक संसार होता जाता है। ऐसे ही श्रमसे व्यक्तिगत सम्पत्तिकी उत्पत्ति होती है और उत्पादन- पर उन लोगोका ही प्रभुत्व होता है जो स्वय कुछ पैदा नही करते । पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्थाकी यह एक मौलिक घटना है। इसीलिए एंगेल्सने कहा है कि इन्सानकी हैसियतसे चेतनापूर्वक उत्पादनकी प्रक्रियामे लगो, न कि बतौर क्षुद्र व्यक्तियोके जिनमे सामाजिक चेतना नहीं है और इसी तरह तुम तमाम कृत्रिम असंगतियो और विरोधोका अन्त कर सकोगे । इसीलिए मार्क्स कहते है कि मानव-समाजका उद्धार सामाजिक शक्तियोके ऐसे नवीन सगठनद्वारा ही हो सकता है जो मनुष्यको उन साधनोका मालिक वनावे जो उनको जीवन प्रदान करते है। इसीलिए समाजवाद व्यक्तिगत सम्पत्तिका निश्चित लोप चाहता है, क्योकि यह मनुष्यको अपने श्रमसे अलग करती है । व्यक्तिगत सम्पत्तिके लोपसे ही मानव-समाज मानवताके गुणोसे संयुक्त किया जा सकता है । इसी तरह पूर्ण चेतनाके साथ मानव सच्चे मनुष्यत्वको पुन. प्राप्त कर सकता है । मानवके स्वास्थ्यलाभके लिए समाजवादकी आवश्यकता है । अर्थशास्त्रियोंका विकृत दृष्टिकोण हमारे अधिकाश अर्थशास्त्री पूंजीवादका समर्थन करते है। उनमे इतिहासके ज्ञानकी कमी है। वे कोरे अर्थशास्त्री है । वे यह नही देखते कि मनुष्य उत्पादनकी शक्तियोकी वृद्धि करता हुमा आपसमे एक निश्चित सम्बन्ध स्थापित करता है और इस सम्बन्धका रूप और प्रकार निश्चित रूपसे वदलता है, जब उत्पादनकी शक्तियाँ बदलती है और उनकी वृद्धि होती है । आजकी उत्पादन-प्रणालीसे जो सामाजिक सम्बन्ध है वे तभी तक कायम है जवतक वर्तमान प्रणाली कायम है। अर्थशास्त्रके जो नियम उन्होने निश्चित किये है वे अटल और शाश्वत नहीं है । वे केवल वर्तमान प्रणालीको ही लागू होते है, एक विशेप ऐतिहासिक विकासको अवस्थामे ही उन नियमोकी सत्यता है । अर्थशास्त्रके ये नियम ऐसे ऐतिहासिक सामाजिक सम्बन्धोके द्योतक है जो अस्थायी है । इन सम्बन्धोके बदलते ही नियम भी बदल जावेगे । इसलिए इन नियमोको अटल वनाना मूर्खता है । यदि ये नियम अटल होते तो सामाजिक और आर्थिक विकासको सम्भावना ही न रह जाती। आज समाजमे वेतरतीवी और अस्तव्यस्तता है । मनुष्य, मनुष्यके खिलाफ संघर्ष करता है और सब व्यक्ति, जो एक दूसरेसे अपने व्यक्तित्वके कारण ही अलग किये गये है सवके विरुद्ध संघर्ष करते है । सामन्तशाही जमानेके नियन्त्रणो और वन्धनोसे मुक्त होकर १६
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