२८८ राष्ट्रीयता और समाजवाद पहनते है और शिक्षासे वचित रखे जाते है। समाजका वह अनाचार जो करोड़ों 'मानव-संतानको मानवतासे वचित कर उन्हे जानवरकी-सी जिन्दगी बसर करनेके लिए मजबूर करता है, मासको चोट पहुँचाता था। मार्सने एक स्थलपर कहा है कि सर्वहारा मजदूरको रोजमर्रा के भोजनकी अपेक्षा शौर्य, यात्मविश्वास, स्वाभिमान पीर स्वातन्त्र्यकी कही ज्यादा जरूरत है। रोजा लग्जेम्बर्गने फ्रेञ्ज मेहरिङ्गको एक पत्नमें लिखा था कि समाजवाद रोटीका सवाल नही है बल्कि एक सांस्कृतिक अान्दोलन है जो संसारमे एक महती विचारधाराको प्रवाहित करता है। इस सांस्कृतिक आन्दोलनका केन्द्र मानव है । मानव सर्वोपरि है। जो सिद्धान्त, वाद या विचार-चाहे वह कोई धर्म हो या दर्शन या अर्थशास्त्र-मानवके उत्कर्पको घटाता है वह मावर्सको मान्य नहीं है । धर्मकी अपूर्णता मार्क्स मानवकी आत्मचेतनाको सबसे बडा देवता मानता है । फायरवाखके समान मार्सका कहना था कि मनुष्य धर्मको वनाता है, न कि धर्म मनुप्यको और मानवेतर परम- पुरुपकी कल्पना मनुष्यके ख्याल और वहमका नतीजा है । इसमें वास्तविकता कुछ नहीं है, यह केवल मनुष्यका विकृत और ख्याली प्रतिरूप मान है । जितना ही अधिक मनुप्य ईश्वरको गुणोसे विभूपित करता है उतना ही अधिक वह अपनेको खण्डित और विकलित बनाता है । मानवकी परिपूर्णतामे धर्म बाधक है । परलोककी सुन्दर कल्पनाका धर्म अपनी आजकी जिम्मेवारियोसे बरी हो जाता है । धर्म ग्राज रूढियों और स्थिर स्वार्थीका समर्थक है । उसके अनुसार वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ईश्वरकृत है और इसलिए वह सदाके लिए अपरिवर्तनशील है। धर्म वर्तमानको रक्षित रखना चाहता है और जिस समाजमे वर्ग-सघर्प नित्य वढता चला जाता हे उस समाजको वह अपने प्रचलित रूपमें अक्षुण्ण रखना चाहता है । आजकी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थामें मनुष्य अपनी पूर्ण ऊँचाईको नही पहुँच सकता, अपना पूर्ण विकास नही कर सकता, लेकिन धर्म इसी व्यवस्थाका पोपक और समर्थक है। धर्म परमेश्वरकी कल्पना कर मनुष्यको दुर्वल बना देता है, उसमे आत्मविश्वास उत्पन्न नही होने देता और उसकी स्वतन्त्रताका अपहरण करता है, जीवनकी ठोस हकीकतसे उसको अलग कर ख्याल और वहमकी काल्पनिक दुनियामे उसको नचाता है और उसकी यात्मचेतनाको पूर्णरूपसे विकसित नही होने देता। धर्मके बोझके तले मानव दवा पड़ा है, समाजवाद धर्मकी सच्ची मीमांसा कर धर्मकी कैदसे मनुष्यको नजात दिलाता है और इस तरह मानवताके गौरवको बढाता है । पूँजीवादी प्रथाका दोष जिस तरह धर्म मानवताको विकृत और खण्डित करता है उसी तरह उत्पादनको पूंजीवादी प्रक्रिया मानव-श्रमके गौरवको नष्ट कर देती है । इस प्रक्रियामे मजदूर उत्पादन- के साधनोसे पृथक् कर दिया जाता है । मजदूरका श्रम भी और तिजारती मालकी तरह बाजार-भावपर बाजारमे विकता है । मजदूर मेहनत मशक्कत कर जो वस्तु तैयार करता है उसपर उसका प्रभुत्व नहीं होता। मजदूर उत्पन्न वस्तुको अपनेसे अलग समझता है ।
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