समाजवादका मूलाधार-मानवता २८७ समाजवादका मूलाधार--मानवता भौतिकवादके सिद्धान्तको माननेके कारण समाजवादके विरुद्ध प्रायः यह प्राक्षेप किया जाता है कि समाजवाद केवल सकुचित आर्थिक दृष्टिकोणसे ही सव प्रश्नोपर विचार करता है और इसलिए वह कोई ऐसे आदर्श समाजके सम्मुख उपस्थित नही करता जिनकी पूर्तिके लिए मनुष्यको आत्मत्याग करना पड़े । अज्ञानवश लोग समाजवादपर यह लाञ्छन लगाते है, किन्तु इस इल्जाममे सत्यका लवलेश भी नही है । प्रमुख समाजवादियोकी जीवनी ही इस इल्जामको झुठलाती है। वैज्ञानिक समाजवादके जन्मदाता मार्क्सका जीवनचरित्र जिन्होने पढा है वे इसे अच्छी तरह जानते है कि किस कप्टसे उसने अपनी जिन्दगी वसर की थी और आर्थिक कष्ट होते हुए भी उसने एक क्षणके लिए मानवसमाजकी सेवाके लक्ष्यको नही छोडा । उसकी जिन्दगीमे ऐसे मौके अक्सर आये जव घरमे खानेतक- को न था, घरसे बाहर निकलनेके लिए कपड़ेतक न थे और कर्जके बोझसे वह पिसा जा रहा था। लेकिन वह सदा निश्चल भावसे अपनी साधनामे लगा रहा और सख्तसे सख्त मुसीवतमे भी सिद्धान्तोपर अटल रहा । लोग कह सकते है कि अपनी खप्तको पूरा करनेके लिए कार्ल मार्क्सने ये सव कष्ट सहे होगे पर जिन सिद्धान्तोंका उसने निरूपण किया है उनमे उच्च प्रादर्शोके लिए जगह नहीं है। आमतौरसे यह समझा जाता है कि समाजवाद महज़ रोटीके सवालको हल करनेकी कोशिश करता है और चूंकि वह इतिहासको वर्गसंघर्षकी प्रक्रियामात्र मानता है इसलिए उससे किसी ऊँचे आदर्शकी आशा करना व्यर्थ है। भ्रमपूर्ण धारणा हम प्रमुख समाजवादियोकी उक्तियोसे ही नहीं, वरन् समाजवादके मौलिक सिद्धान्तोके आधारपर यह दिखलानेका प्रयत्न करेगे कि लोगोकी यह धारणा विलकुल गलत है। एक बार मार्क्सने स्वयं कहा था कि उसकी खाल इतनी मोटी नही है कि वह मानव समाजके कष्टोकी ओर अपनी पीठ फेर दे । हट्टेनने मार्क्सके बारेमे विलकुल ठीक कहा है कि उसका हृदय इतना विशाल और कोमल था कि औरोकी अपेक्षा मानवसमाजके साधारणसे साधारण दु.ख भी उसको ज्यादा प्रभावित करते थे। जिस प्रकार भूकम्पमापक यन्त्र पृथ्वीके सूक्ष्मसे सूक्ष्म कम्पनका भी हिसाव रखता है उसी तरह मार्क्स मनुष्यके साधारणसे साधारण कष्टका हिसाव रखता था । समाजके इस अन्यायको वह बर्दास्त नही कर सकता था कि एक वर्गके लोग सम्पन्न और सुसस्कृत हो और दूसरे गुलामोकी तरह रातदिन मेहनत करनेपर भी जिन्दगीकी साधारण आवश्यकताअोसे वचित रखे जायँ । जो श्रम करते है और समाजकी दौलतको पैदा करते है, जो पृथ्वीके गर्भसे सोना, चाँदी आदि धातु, कोयला और तेल निकालते है, जो कारखानेमे तरह-तरहका तिजारती माल तैयार करते है, जो रेल और जहाजद्वारा दुनियाके एक कोनेसे दूसरे कोनेतक माल पहुँचाते है, जो बड़े-बड़े महल खड़े करते है और इस पृथ्वीको सजाते है, वे स्वय जानवरोकी जिन्दगी गुजारते है, गन्दे और तंग मकानोमे रहते है, जहाँ हवाकी गुजर नही, मैले-कुचले कपड़े
पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३०२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।