द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद २८५ या रूपान्तर हो रहा है। अतएव यदि हम किसी वस्तुके यथार्थ रूपको समझना चाहें तो हम उसके किसी अवस्था-विशेषमे पाये जानेवाले रूपका अध्ययन करके ही यह ज्ञान नही प्राप्त कर सकते है । वस्तु-विशेपके यथार्थ रूपको समझनेके लिए हमे उसके विकासात्मक स्वभावको ध्यानमे रखकर ही उसका अध्ययन करना होगा । उदाहरणार्थ, आजके पूंजीवादी समाजको ही लें। अनेक पूँजीवादी विद्वान् वर्तमान समाजके नियमोका विश्लेषण करके यह बतलाते है कि पूंजीवाद क्या है। मार्क्सवादके अनुसार उनकी यह व्याख्या अधूरी ही समझी जायगी। पूंजीवादका वास्तविक स्वरूप समझनेके लिए हमें पूर्व प्रचलित सामन्तवादी व्यवस्थापर दृष्टिपात करना होगा, यह पता लगाना होगा कि पूँजीवादी सम्बन्धोका आरम्भ किन अवस्थाअोमे और किस प्रकार होता है, यह देखना होगा कि पूंजीवादकी उत्पत्तिके वादसे उसके विकासमे अबतक कौनसे नियम काम करते रहे है और फिर यह देखना होगा कि पूंजीवादको इस आखिरी मजिलमे पुराने नियम कहाँतक काम करते है और उसकी नयी विशेषताएँ क्या है । इसी दृष्टिसे अध्ययन करनेपर ही हम पूंजीवादी समाजके नियमोकी वैज्ञानिक व्याख्या कर सकते है । सक्षेपमे, मार्क्सवादी दर्शन हमे यह बतलाता है कि विश्वका व्यापार कोई बना-बनाया ( ready made ) खेल नही है, यह किसी ढाँचेके भीतर काम नही कर रहा है, इसका कोई स्थिर स्वरूप नही है, सारा जगत् एक प्रक्रिया ( Process ) है और प्रतिक्षण उसमे रूपान्तर होता रहता है। आन्तरिक विरोध या असंगति भौतिक पदार्थका यह विकास या रूपान्तर एक सीधी रेखामे अर्थात् यन्त्रवत् ( mechanically ) नही होता । विकासको प्रगतिमे हर क्षण आन्तरिक असगतियाँ ( inner contradictions ) उत्पन्न होती रहती है और इन्ही असगतियोके द्वारा ही नया रूपान्तर होता है। उदाहरणार्थ, अगर हम पूँजीवादसे पूर्व प्रचलित सामन्तवादको ले तो हम देखेंगे कि सामन्तवादी समाजके भीतर जो आरम्भिक नियम काम कर रहे थे उन्हीके अनुसार विकास करते-करते सामन्तवादी प्रणाली पूंजीवादी प्रणालीके रूपमे परिणत नही हो गयी । इसके विपरीत हम देखते है कि सामन्तवादी प्रणालीके विकासको अवस्था-विशेषमे ऐसी असगतियाँ उत्पन्न होती है जो कि प्रारम्भिक विकासके कालमे नही थी और ये ही असगतियाँ बढते-बढते ऐसा रूप धारण कर लेती है जब कि सामन्तवादी प्रणालीके भीतर घोर संघर्प पैदा होता है और पूंजीवादी समाजकी स्थापना होती है। इसी प्रकार ससारके हर एक व्यापारका प्रतिक्षण नवीन रूपान्तर होता रहता है। एक समयमे जो साम्यावस्था ( equilibrium ) कायम रहती है उसीके भीतरसे नयी असगतियाँ उत्पन्न होती है जिनके गर्भमे प्रस्तुत साम्यावस्थाके विनाशके बीज मौजूद रहते है । इन असङ्गतियोके अंकुरके बढते-बढ़ते एक अवस्था ऐसी आती है जब प्रचलित साम्यावस्था नष्ट हो जाती है और एक नयी साम्यावस्था पैदा होती है । इस नयी साम्यावस्थाके भीतरसे फिर नयी असङ्गतियां उत्पन्न होती है और
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